Friday, July 24, 2020

साम्प्रदायिक राजनीति और शोषित वर्ग

इस लेख में हम साम्प्रदायिक और जातीय दंगे फैलाकर अपने स्वार्थों की पूर्ति करने की साम्प्रदायिक राजनीति पर विचार करेंगे। इसी क्रम में सर्वप्रथम इस विषय पर विचार करते हैं कि वे कौन लोग हैं जो चाहते हैं कि समाज में एकता स्थापित होने पाए?

बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर और महान क्रान्तिकारी दार्शनिक कार्ल मार्क्स दोनों ही विद्वानों ने भारतीय समाज को वर्ग विभाजित और जाति विभाजित शोषक समाज कहा है। बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि भारत में जातियां आपस में सतत संघर्षरत सैन्य शिविरों की तरह हैं। तथाकथित उच्च जातियां तथाकथित निम्न जातियों का शोषण कर रही हैं। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग शोषित वर्ग का शोषण कर रहा है क्योंकि मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग ने ही समाज के सभी उत्पादन साधनों पर अधिकार कर रखा है। इस अधिकार के कारण ही मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग शासक वर्ग भी है। इस अधिकार को बनाये रखने के लिये ही मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग शोषित वर्ग का दमन करता है। जबकि शोषित वर्ग ही समाज का उत्पादक वर्ग है अर्थात शोषित वर्ग ही अपने श्रम से उत्पादन करता है। परन्तु इस उत्पादन पर मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग कब्ज़ा कर लेता है और शोषित वर्ग को शोषण, दमन, निर्धनता और अशिक्षा आदि के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। भारतीय समाज में शोषित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का अधिकांश भाग और धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेषतः मुसलमानों की तथाकथित निम्न जातियां ही घोर निर्धनता की स्थिति में हैं और इसलिये यही समूह अपना श्रम बेचकर जीने को विवश हैं। भारतीय समाज में शोषित वर्ग का अधिकांश भाग शोषित जातियों अर्थात अनुसूचित जातियों से निर्मित है। इसके साथ ही इस शोषित वर्ग में अन्य पिछड़ा वर्ग की निर्धन जातियां, अनुसूचित जनजातियां और मुसलमानों की तथाकथित निम्न जातियां भी सम्मिलित हैं। इसी शोषित वर्ग का शोषण करके मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग अपनी अय्याशियां कर रहा है अर्थात शोषित वर्ग का खून चूसकर ही मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग अपनी तोंद फुला रहा है। इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग शोषित वर्ग का स्वाभाविक शत्रु है। इसलिये जो तथाकथित बुद्धिजीवी भारत में 'अनेकता में एकता' की खोखली बातें करते हैं वो ऐसा केवल शोषित वर्ग को मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग के विरुध्द संगठित होने से रोकने के लिये करते हैं।

यहां यह भी ध्यान रखने योग्य है कि संख्यात्मक रूप से शोषित वर्ग ही बहुसंख्यक वर्ग भी है जबकि मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग अल्पसंख्यक वर्ग है। परन्तु मनुवादी वर्ग ने शोषित वर्ग को सैकड़ों जातियों, सम्प्रदायों में बाँट कर उसे शक्तिहीन बना दिया है। इसी कारण मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग शोषित वर्ग में किसी भी सम्भावित एकता को रोकने हेतु प्रत्येक षड़यंत्र करता है। इन षड़यंत्रों के कुछ उदाहरणों के रूप में जातीय और साम्प्रदायिक दंगो, राजनीतिक हत्याओं, टुकड़खोरों का उपयोग आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

इससे स्पष्ट है कि सामाजिक एकता से केवल मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग को ही खतरा है क्योंकि तब शोषित वर्ग किसी जातीय, धार्मिक, साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय, भाषागत, लैंगिक आदि दुष्प्रचारों से प्रभावित नहीं हो पायेगा तथा अपने एकमात्र शोषक अर्थात मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग की सत्ता को उखाड़ फेंकेगा। जिसके पश्चात् शोषित वर्ग समतामूलक और शोषणमुक्त समाज का निर्माण करेगा।

इसी तरह भारत में मनुवादी लोग कहते हैं कि भारत में रहने वाले 'हिन्दू' हैं और अन्य लोगों को वो इस देश की नागरिकता से वंचित करने की बात करते हैं। इसके तर्क में वे कहते हैं कि भारत का नाम 'हिन्दुस्तान' है और यहाँ के लोग प्राचीन काल से ही 'हिन्दू धर्म' और 'हिन्दू संस्कृति' का पालन करते रहे हैं।

इसलिए सर्वप्रथम देश के नाम पर ही विचार किया जाए क्योंकि भले ही महान साहित्यकार विलियम शेक्सपीयर ने कहा हो कि "नाम में क्या रखा है!" परन्तु मनुवादी समाज में 'नाम' में बहुत 'कुछ' रखा है।

इसका सामान्य उदाहरण लोगों द्वारा हमारे देश के नाम का प्रयोग करने में देखा जा सकता है। बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा निर्मित भारत के संविधान का प्रथम अनुच्छेद है कि:-

1.(1) भारत अर्थात इंडिया, राज्यों का संघ होगा।

उपरोक्त अनुच्छेद में इस देश के नाम का उल्लेख किया गया है।

इसलिए जो लोग इस देश को भारत या इंडिया के अतिरिक्त अन्य नामों से संबोधित करते हैं। वे लोग सविंधान का घोर उल्लंघन करते है। वास्तव में सम्पूर्ण विश्व में 'हिन्दुस्तान' नाम के देश का कहीं अस्तित्व नहीं है। लेकिन मनुवादी मानसिकता के लोग सोद्देश्य इस देश के लिये 'हिन्दुस्तान' नाम का उपयोग करते हैं। क्या प्राचीन काल में कभी इस देश का नाम 'हिन्दुस्तान' रहा है? सर्वप्रथम यह सत्य जान लेना चाहिये कि भारत में ब्रिटिश शासन से पहले भारतीय उपमहाद्वीप सैकड़ों टुकड़ों में बँटा हुआ था। यहां सैकड़ों राज्य थे जो पृथक-पृथक राजतन्त्रों के अधीन थे और प्रत्येक राज्य विधिक रूप से एक स्वतंत्र देश था। ब्रिटिश शासन की समाप्ति के समय भारतीय उपमहाद्वीप में 542 राजतन्त्र थे। अशोक और अकबर भी इस उपमहाद्वीप को एकीकृत करके एक देश नहीं बना पाए। यदि इन पृथक-पृथक राज्यों के अपने पड़ोसी राज्यों से सम्बन्धों पर विचार किया जाए। तो यह ज्ञात होता है कि इन राज्यों में किसी प्रकार का सौहार्द नहीं था और यह आपस में ही लड़ते रहते थे। इसी कारण यह लोग इस उपमहाद्वीप से बाहर के आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर सके। यहाँ तक कि इन लोगों ने अपने प्रतिद्वन्दी राज्यों को पराजित करने के लिये बाह्य आक्रमणकारियों को स्वयं ही आक्रमण करने हेतु प्रेरित भी किया। इस प्रकार जब किसी देश का अस्तित्व ही नहीं था तब देश का नाम 'हिंदुस्तान' होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

नागरिकता के सम्बंध विचार किया जाए तो किसी देश की नागरिकता और उस देश में निवास करने वाले लोगों के धर्म में अन्तर होता है। नागरिकता का धर्म से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। एक ही देश में विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग होते हैं परन्तु उनकी नागरिकता एक ही होती है जो उस देश की विधिक व्यवस्था निर्धारित करती है। इसलिये धर्म के आधार पर नागरिकता को परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसी तरह एक ही धर्म को मानने वाले विभिन्न देशों के नागरिक हो सकते हैं। विश्व में यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों को मानने वाले लोगों की विभिन्न देशों में बहुलता है परन्तु उन देशों के नागरिकों के लिये उस धर्म विशेष को मानने की अनिवार्यता नहीं है। ईसाइयों के कैथोलिक संप्रदाय का प्रमुख पोप होता है जो वेटिकन नामक देश में रहता है। सम्पूर्ण विश्व में कैथोलिक ईसाई संप्रदाय के करोड़ों लोग विभिन्न देशों में रहते हैं परन्तु उनकी नागरिकता पोप निर्धारित नहीं करता बल्कि उस देश की विधिक व्यवस्था निर्धारित करती है जिसमें वो रहते हैं। इसी प्रकार विश्व में इस्लाम को मानने वाले करोड़ों लोगों की नागरिकता भी इस्लाम के आधार पर नहीं बल्कि उस देश की विधिक व्यवस्था द्वारा निर्धारित होती है। सऊदी अरब का नागरिक पाकिस्तान या बांग्लादेश का नागरिक नहीं हो सकता, यद्यपि तीनों ही देशों की जनता का बाहुल्य इस्लाम धर्म में विश्वास रखता है। इस प्रकार धर्म के आधार पर नागरिकता निर्धारित नहीं होती।

अब तथाकथित 'हिन्दू संस्कृति' पर विचार करने से पहले भारतीय संस्कृति पर विचार कर लिया जाए। तथाकथित बुद्धिजीवी जिस भारतीय संस्कृति की बात करते हैं, क्या उसे परिभाषित कर सकते हैं? उनका 'भारतीय संस्कृतिशब्द से क्या आशय है? प्राचीन काल से ही भारत में विभिन्न सभ्यताओं संस्कृतियों के लोग आकर बसते रहे हैं। आर्य, ईरानी, यूनानी, कुषाण, शक, पहलव, अरबी, तुर्की, रोमन आदि सभ्यताओं संस्कृतियों के लोग सदियों से भारत में आकर बसते रहे। इसी तरह भारत में हड़प्पा सभ्यता, द्रविड़ सभ्यता आदि भी रही। भारत में विभिन्न धर्मों सम्प्रदायों को मानने वाले लोग हैं, जिनकी संस्कृतियां भिन्न-भिन्न है। भारत में बौद्ध, जैन, इस्लाम, ईसाई, यहूदी, सिख, पारसी, तथाकथित हिन्दू धर्म आदि धर्मों को मानने वाले लोग हैं। इन लोगों की संस्कृतियां भिन्न-भिन्न हैं। इस कारण कोई संस्कृति यह दावा नहीं कर सकती कि वह देश के सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। साझा 'भारतीय संस्कृतिका कोई अस्तित्व ही नहीं हैं। तब यह तथाकथित बुद्धिजीवी किस भारतीय संस्कृति की बात करते हैं? अब यदि हम तथाकथित हिन्दू धर्म हिन्दू संस्कृति पर ही विचार करें, जिसका मनुवादी वर्ग गुणगान करता रहता है, तब भी हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाता। तथाकथित हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति क्या है, यह निर्धारित कर पाना भी असम्भव है। एकेश्वरवादी, बहुदेववादी सर्वेश्वरवादी भी स्वयं को हिन्दू कहते हैं। शाकाहारी मांसाहारी दोनों तरह के लोग अपने को हिन्दू कहते हैं। हिन्दू लोग मन्दिरों में तो जाते ही है, वे बौद्ध पूजागृहों, जैन पूजागृहों यहां तक कि पीरों की मज़ारों पर भी जाते हैं। इस प्रकार सभी लोग जो अपने को हिन्दू मानते हैं, उनके रीति-रिवाजों में समानता नहीं है। हिन्दुओं में उत्तर भारत में सपिण्ड गोत्र विवाह की प्रथा नहीं है, परन्तु दक्षिण भारत में चचेरे-ममेरे बहन-भाईयों में वैवाहिक सम्बन्ध प्रचलित है।1 इस प्रकार तथाकथित हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति की कोई सुनिश्चित व्याख्या नहीं है।

यह भी सत्य है कि इस उपमहाद्वीप पर मुसलमानों के आक्रमण से पहले ब्राह्मणों के किसी भी शास्त्र में 'हिन्दू' शब्द का उल्लेख नहीं किया गया था। वास्तव में हिन्दू नामक किसी धर्म का अस्तित्व ही नहीं है। इससे बचने के लिये ही मनुवादी 'सनातन धर्म' शब्द का उपयोग करते हैं और कहते हैं कि इस तथाकथित हिन्दू धर्म का वास्तविक नाम 'सनातन धर्म' है। परन्तु इस तरह नाम परिवर्तन से भी समस्या हल नहीं होती। इस तथाकथित सनातन धर्म और तथाकथित सनातन संस्कृति के क्या मूलभूत सिद्धांत हैं? यदि इस तथाकथित हिन्दू धर्म का नाम सनातन धर्म है तो फिर मनुवादी लोग स्वयं को हिन्दू और इस धर्म को हिन्दू धर्म क्यों कहते हैं?

वास्तव में मुसलमान आक्रांताओं ने यहाँ के निवासियों को स्वयं से पृथक सम्बोधित करने के लिये ही इनको 'हिन्दू' नाम दे दिया। मनुवादी वर्ग भी पहले स्वयं को हिन्दू नहीं कहता था परन्तु साम्प्रदायिक राजनीति करने और शोषित वर्ग को विभाजित रखने के लिये मनुवादी वर्ग ने बढ़ी चतुराई से हिन्दू शब्द का उपयोग करना आरम्भ कर दिया। मनुवादी वर्ग संख्या में बहुत कम है जबकि शोषित वर्ग बहुसंख्यक है। इसलिये शोषित वर्ग को बांटने के लिये जिससे शोषित जातियाँ निर्धन मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों से मिलकर संगठित ना हो जाएं, मनुवादी वर्ग ने हिन्दू के नाम पर साम्प्रदायिक राजनीति करना आरम्भ कर दिया। मनुवादी वर्ग पहले हिन्दू के नाम पर शोषित जातियों को भ्रमित करके मुसलमान और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों का दमन करता है, फिर तथाकथित हिन्दू धर्म की मध्यवर्ती जातियों को साथ लेकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का दमन करता है फिर इसी क्रम में तथाकथित हिन्दू धर्म की अन्य जातियों को साथ लेकर इन मध्यवर्ती जातियों का दमन करता है। इस प्रकार हिन्दू नाम का उपयोग करके मनुवादी वर्ग एक-एक करके अपने सभी शत्रुओं को पराजित कर देता है तथा सत्ता पर अधिकार बनाये रखता है।

मनुवादी कहते रहते हैं कि उनका उद्देश्य देश में तथाकथित हिन्दू धर्म पर आधारित राज्य व्यवस्था की स्थापना करना है। परन्तु इस तथाकथित हिन्दू राज्य व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के अनुसार लोगों के अधिकार कर्तव्य निश्चित होंगे तथा मनुवादियों के अतिरिक्त सभी लोगों को मूलभूत मानव अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाएगा। दूसरे शब्दों में शोषित वर्ग के लिये यह असमानतापूर्ण, अन्यायपूर्ण और शोषक राज्य व्यवस्था होगी। इसकी स्थापना के लिये यह मनुवादी लोग साम्प्रदायिक और जातीय दंगों, धार्मिक उन्माद, मनुवादी अत्याचार और धनशक्ति का उपयोग कर रहे हैं।

मनुवादियों की रणनीति रही है कि समाज में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये सदैव तात्कालिक परिवर्तनों और आर्थिक व्यवस्था के अनुसार स्वयं को अनुकूलित कर लिया जाए। जब आर्थिक व्यवस्था सामन्तवादी तब मनुवादियों ने सामंतवादी व्यवस्था में अनुकूलन करके शोषित वर्ग को लूटा और अब आर्थिक व्यवस्था पूंजीवादी स्वरूप ले रही है तो मनुवादी वर्ग अब पूंजीवादी व्यवस्था में अनुकूलन करके मनुवादी व्यवस्था को सुरक्षित कर रहा है और शोषित वर्ग का खून चूस रहा है। मनुवादियों द्वारा हिन्दू के नाम पर की जा रही साम्प्रदायिक राजनीति से पूंजीवादियों को भी लाभ हो रहा है क्योंकि इस कारण शोषित वर्ग संगठित होकर अपने शत्रुओं से लड़ पाने में असमर्थ बना हुआ है। इसी तरह भविष्य में यदि आर्थिक व्यवस्था में कोई अन्य परिवर्तन होता है और कोई नयी आर्थिक व्यवस्था जन्म लेती है तो यह मनुवादी वर्ग उस नई आर्थिक व्यवस्था में अनुकूलन करके शोषित वर्ग का शोषण करना जारी रखेगा। इसलिये शोषित वर्ग का मुख्य शत्रु 'मनुवादी व्यवस्था' है और जब तक मनुवादी व्यवस्था का उन्मूलन नहीं होगा तब तक शोषित वर्ग के शोषण का उन्मूलन भी नहीं होगा, भले ही केवल पूंजीवादी व्यवस्था का उन्मूलन कर दिया जाए। इसलिए शोषित वर्ग के शोषण का उन्मूलन करने के लिये शोषित वर्ग को मनुवादी व्यवस्था और पूंजीवादी व्यवस्था से एक साथ संघर्ष करते हुए दोनों का उन्मूलन करना होगा अर्थात मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था का उन्मूलन करना होगा।

इस प्रकार मनुवादियों द्वारा हिन्दू के नाम पर की जा रही साम्प्रदायिक राजनीति केवल मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को सुरक्षित रखने की रणनीति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। शोषित वर्ग को हिन्दू शब्द के षड़यंत्र से सावधान रहकर संगठित होने और मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के उन्मूलन हेतु संघर्ष करने की आवश्यकता है। परन्तु इस संघर्ष में शोषितों को अपने ही बीच के टुकड़खोरों और मनुवादियों के सगे भाई तथाकथित साम्यवादियों से भी सावधान रहने की आवश्यकता है क्योंकि ये टुकड़खोर और तथाकथित साम्यवादी शोषितों की पीठ में छुरा भोंकने वाले तथा मनुवादियों के तलवे चाटने वाले कुत्ते ही हैं।

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सन्दर्भ और टिप्पणियाँ

1.       हिन्दू धर्म की पहेलियां (The Riddles of Hinduism), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खंड 8, संस्करण 2013, पृष्ठ- 21, प्रकाशक:- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली।