Thursday, April 11, 2019

तथाकथित साम्यवादी ठगों की मक्कारी


महान क्रान्तिकारी दार्शनिक कार्ल मार्क्स और उनके योग्य शिष्य तथा रूसी क्रान्ति के जनक व्लादिमीर इलिच लेनिन ने अपना सम्पूर्ण जीवन शोषितों के कल्याण हेतु समर्पित कर दिया। इसी तरह भारत के महान क्रान्तिकारी, दार्शनिक, समाज परिवर्तक बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने अपना जीवन शोषितों के कल्याण, उनको मनुवादी अत्याचारों से मुक्ति दिलाने और उनको मानव अधिकार प्रदान कराने हेतु संघर्ष में न्यौछावर कर दिया। आज विश्व में करोड़ों लोग उपरोक्त महान व्यक्तियों के नाम मात्र को सुनकर ही अपार साहस और प्रेरणा का अनुभव करते हैं। विश्व में इन क्रान्तिकारियों के करोड़ों अनुयायी हैं। परन्तु भारत का यह अभिशाप है कि जिस किसी मनुष्य और विचारधारा से मनुवादी व्यवस्था का अस्तित्व संकट में पड़ जाता है तो मनुवादी लोग उस मनुष्य की षड़यंत्रों द्वारा हत्या कर देते हैं तथा उस विचारधारा को विकृत करने का प्रयास करते हैं। इतिहास में इसका सर्वाधिक प्रसिध्द प्रसंग महान क्रान्तिकारी-दार्शनिक, समाज-सुधारक गौतम बुध्द की मनुवादियों द्वारा हत्या करने और उनकी विचारधारा को विकृत करने के षड़यंत्र का है। परन्तु मनुवादी लोग बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की हत्या करने में तो सफल हो गए परन्तु उनकी विचारधारा को विकृत नहीं कर पाए। यद्यपि इस हेतु भी मनुवादियों के षड़यंत्र सतत रूप से जारी हैं।
अब बात करते हैं महान क्रान्तिकारी दार्शनिक कार्ल मार्क्स और महान क्रान्तिकारी लेनिन की। मार्क्स और लेनिन का दर्शन सम्पूर्ण विश्व से समस्त शोषण और असमानताओं का उन्मूलन करके सर्वाधिक शोषित-उत्पीड़ित वर्ग को सत्तासीन करने हेतु है जिससे वह शोषित वर्ग समतामूलक और शोषणमुक्त समाज का निर्माण कर सके। इस तरह से तो भारत के तथाकथित साम्यवादियों को यहाँ के सर्वाधिक शोषित-उत्पीड़ित वर्ग अर्थात शोषित जातियों को सत्तासीन करने हेतु संघर्ष करना चाहिये और इसलिये बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के दिखाये मार्ग पर चलना चाहिये। जिससे शोषित जातियों अर्थात सर्वाधिक शोषित-उत्पीड़ित वर्ग को सत्तासीन किया जा सके। मार्क्स और लेनिन दोनों ने ही कहा है कि क्रान्ति का निर्यात नहीं होता और प्रत्येक देश की स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार क्रान्ति की दिशा तय होती है। परन्तु भारत के तथाकथित साम्यवादियों की बात ही निराली है, इनका बहुप्रतीक्षित क्रान्तिकारी सर्वहारा एक काल्पनिक स्वर्ग से अवतरित होगा और तब ये लोग क्रान्ति करेंगे!
भारत के तथाकथित साम्यवादियों की कार्य प्रणाली का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है:-
(1) बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का घोर विरोध करना। वैसे आजकल इन तथाकथित साम्यवादियों ने एक दूसरा पैंतरा अपना लिया है कि जिस तरह मनुवादी लोग संसदीय राजनीति के कारण चुनावों में शोषित जातियों के मत प्राप्त करने के लिये बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का नाम जपते हैं परन्तु उनकी विचारधारा अर्थात अम्बेडकरवाद को सिरे से नकारते रहते हैं उसी प्रकार आजकल कुछ तथाकथित साम्यवादी लोग भी चुनावों में शोषित जातियों को भ्रमित करके उनके मत हड़पने के लिये बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का नाम तो लेने लगे हैं लेकिन ये लोग भी अम्बेडकरवाद को सिरे से नकार देते हैं।
(2) शोषित जातियों पर प्रतिदिन हो रहे मनुवादियों के अत्याचारों पर चुप्पी साधे रहना।
(3) शोषित जातियों की महिलाओं के साथ मनुवादियों द्वारा प्रतिदिन किये जा रहे बलात्कारों और सामूहिक बलात्कारों पर चुप्पी साधे रहना।
(4) शोषित जातियों द्वारा स्वयं संगठित होकर किये जाने वाले राजनीतिक-सामाजिक संघर्षों का विरोध करना।
(5) शोषित जातियों द्वारा किये जाने वाले संघर्षों को जातिवादी कहना यद्यपि इन तथाकथित साम्यवादियों द्वारा स्वयं सदैव ही तथाकथित उच्च जातियों अर्थात मनुवादियों का पक्ष लेना।
(6) शोषित जातियों द्वारा किये जा रहे संघर्षों को विघटित करने के लिये उनके नेतृत्व के प्रति जातीय दुर्भावना से प्रेरित होकर दुष्प्रचार करना।
(7) अज्ञानी और अशिक्षित शोषित जातियों के लोगों को आगे करके पुलिस और सेना से भिड़ा देना और बाद में उनकी लाशों पर सौदेबाजी करके अपने स्वार्थ सिध्द करना।
(8) सर्वहारा की बातें करना जबकि स्वयं सम्पत्ति बटोर कर अय्याशी करना विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करना।
(9) मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के स्थायित्व हेतु 'सुरक्षा वाल्व (Safety Valve)' का कार्य करना।
(10) गोपनीय रूप से साम्प्रदायिक और जातीय दंगे करवाना।
(11) भारत में शोषित जातियों पर प्रतिदिन हो रहे अत्याचारों पर एक शब्द भी नहीं बोलना परन्तु अमेरिकी साम्राज्यवाद पर ढोल पीटते रहना।
(12) मनुवाद, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था और भारतीय पूंजीवाद पर अधिकांशतः चुप्पी साधे रहना या इनकी भ्रामक और गलत व्याख्या करना।
(13) शोषित जातियों को संसद, राज्य विधानसभाओं, सरकारी नौकरियों तथा शिक्षा संस्थाओं में संविधान प्रदत्त आरक्षण का घोर विरोध करना।
इस प्रकार उपरोक्त कुछ बिन्दुओं के अंतर्गत भारत के तथाकथित साम्यवादियों की कार्यप्रणाली संक्षेप में दी गयी है।
अब प्रश्न है कि ये तथाकथित साम्यवादी ऐसा क्यों करते हैं? इसका उत्तर ऊपर दे दिया गया है। जैसा कि पहले भी कहा गया है कि मनुवादी उन व्यक्तियों की हत्या कर देते हैं और उस विचारधारा को विकृत करने का षड़यंत्र करते हैं जिनसे मनुवादी व्यवस्था को संकट का अनुभव होने लगता है। इसीलिये मनुवादियों ने साम्यवाद को विकृत करने के लिये साम्यवाद का मुखौटा लगा लिया है। जबकि उनके कार्य मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिये होते हैं।
इलेस्ट्रेटेड वीकली नामक पत्रिका को दिनांक 8 मार्च 1987 को दिए गए साक्षात्कार में मान्यवर श्री कांसीराम साहब ने सभी मनुवादी राजनीतिक दलों और तथाकथित साम्यवादी दलों के विषय में कहा था, कि:-
"मेरे विचार में सभी पार्टियां यथास्थिति की पोषक हैं। हमारे लिये राजनीति है बदलाव की राजनीति। मौजूदा पार्टियां यथास्थिति को बने रहने का कारण हैं। यही कारण है कि पिछड़ी जातियों को आगे बढ़ाने का कार्य नहीं हुआ।
कम्युनिस्ट (साम्यवादी) पार्टियां इस मामले में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हुई हैं। वे परिवर्तन की बात करती हैं लेकिन काम यथास्थिति के लिये करती हैं। बीजेपी (भारतीय जनता पार्टी) बेहतर है कम-से-कम यह बदलाव की बात कभी नहीं करते। इसलिये लोग धोखे में नहीं रहते।
कांग्रेस और कम्युनिस्ट (साम्यवादी) पार्टियां गरीबी दूर करने की बात करती हैं लेकिन काम गरीबी बनाये रखने का करती हैं। यदि गरीब, गरीब नहीं रहेगा तो ये लोग (यथास्थितिवादी) गद्दी पर नहीं बैठ पाएंगे।"1
'चौथी दुनिया' के 2 अप्रैल से 8 अप्रैल 1989 के अंक में प्रकाशित साक्षात्कार में मान्यवर श्री कांसीराम साहब ने तथाकथित साम्यवादियों के मनुवादी चेहरे को उजागर करते हुए कहा है कि:-
"ये कम्युनिस्ट (साम्यवादी) सबसे ज्यादा खतरनाक हैं, वे जो नारे लगाते हैं वे बड़े लुभावने होते हैं, कमजोर वर्ग के लिये जितने अच्छे नारे इनके पास हैं वैसे किसी के पास नहीं हैं, इसीलिए लोग उनकी तरफ उम्मीद से देखते हैं, पहले ये लोग क्रान्ति की बात कहते थे, तो लोगों को लगता था कि क्रान्ति होगी और हमारा कल्याण हो जाएगा। लेकिन जब उनकी क्रान्ति नारों तक सिमट कर रह गयी तो लोगों ने उनके बारे में दूसरी तरह से सोचना शुरू किया।
यही कि कुछ जगह इनकी सरकार बनी तो इन्होंने क्रान्ति की बात करनी बन्द कर दी और जमीन के राष्ट्रीयकरण की बात भी भूल गए। फिर इसी तरह वे अपने वायदे भुलाते गए। इसीलिए बिहार में कुछ लोग झारखंड मुक्ति मोर्चा बनाकर खड़े हुए और कहा कि कम्युनिस्टों (साम्यवादियों) तुम झूठे हो इसीलिए हम तुम्हें जहानाबाद से आगे नहीं बढ़ने देंगे। बंगाल में ज्योति बसु की सरकार ने अपना असली चेहरा दिखाया ही है। सुन्दरवन के मोरीझापी में एक बंजर जमीन में कुछ भूमिहीन बस गए थे, सरकार ने हजारों को मारकर उखाड़ दिया। उनका कहना था कि उन्होंने सरकार से अनुमति क्यों नहीं ली? मोरीझापी के मामले में हमने आंदोलन शुरू किया है।"2
यह तो केवल संक्षेप में कुछ उदाहरण हैं जो इन तथाकथित साम्यवादी ठगों द्वारा शोषित वर्ग के किये गए जनसंहार को प्रदर्शित करते हैं परन्तु इन तथाकथित साम्यवादी ठगों द्वारा शोषित वर्ग के किये गए ऐसे ही अनगिनत हत्याकांड और जनसंहार इतिहास में दफन हैं और उनको दुनिया कभी जान ही नहीं पायी।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि मनुवादी मानसिकता से ग्रस्त ये तथाकथित साम्यवादी लोग ईमानदारीपूर्वक शोषित वर्ग के उत्थान के लिये कोई प्रयास नहीं कर सकते। वास्तव में जो व्यक्ति या वर्ग जिस व्यवस्था से लाभान्वित हो रहा होता है वो उस व्यवस्था को परिवर्तित करने का प्रयास कभी नहीं करता। इन लोगों की इसी मानसिकता की झलक प्रोफ़ेसर डायसी द्वारा रचित "इंग्लिश कॉन्स्टिट्यूशन (English Constitution)" में प्रभुसत्ता पर उनके विचारों में मिल जाती है:-
"किसी प्रभुसत्तासम्पन्न, विशेषतः संसद द्वारा सत्ता का वास्तविक प्रयोग दो परिसीमाओं से परिबद्ध या नियंत्रित होता है। इनमें एक बाह्य और दूसरी आतंरिक परिसीमा है। किसी प्रभुतासंपन्न की वास्तविक शक्ति की बाह्य सीमा ऐसी संभावना या निश्चितता को कहा जाता है कि उसकी प्रजा या अधिकांश प्रजा उसके कानूनों की अवज्ञा या विरोध करेगी। प्रभुसत्ता के प्रयोग की आंतरिक सीमा स्वयं प्रभुसत्ता के स्वरुप से उत्पन्न होती है। निरंकुश शासक भी अपने चरित्र के अनुसार अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है, जिसका निर्माण उसकी परिस्थिति, तत्समय प्रवृत्त नैतिक भावनाओं और उस समाज के आधार पर होता है, जिससे वह सम्बंधित है। सुल्तान अगर चाहता भी तो मुस्लिम विश्व के धर्म को परिवर्तित नहीं कर सकता था, लेकिन यदि वह ऐसा कर भी सकता था तो यह बिलकुल असम्भव था कि मुस्लिम धर्म का अध्यक्ष, मुस्लिम धर्म को समाप्त करना चाहता। सुल्तान की सत्ता के प्रयोग करने से सम्बद्ध आंतरिक परिसीमा भी इतनी ही शक्तिशाली है, जितनी कि बाह्य परिसीमा। लोग बहुधा यह व्यर्थ का प्रश्न पूछते हैं कि पोप ने अमुक सुधार लागू क्यों नहीं किया? इसका सही उत्तर यह है कि एक क्रांतिकारी, उस श्रेणी के व्यक्तियों में नहीं आता जो पोप बनते हैं और जो व्यक्ति पोप बनता है वह एक क्रांतिकारी बनने की इच्छा नहीं रखता।"3
इसी तरह की सीमायें साम्यवाद का मुखौटा लगाए हुए मनुवादियों की भी हैं। इसे समझने के लिये जाति व्यवस्था से मनुवादियों को प्राप्त हो रहे लाभों को समझने की आवश्यकता है। वास्तव में जाति व्यवस्था की विशेषता 'श्रेणीगत असमानता (Graded Inequality)' का सिद्धांत है। जिसका अर्थ है कि वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था में सर्वोच्च स्तर पर ब्राह्मण होगा तथा अन्य वर्ण और जातियां भले ही ब्राह्मणों से निम्न स्तर पर होंगी लेकिन वे समान स्तर पर नहीं होंगी बल्कि उनमें भी श्रेणीक्रम होगा। इस प्रकार जाति व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान पर ब्राह्मण जातियां और निम्नतम स्थान पर अनुसूचित जातियां (जिन्हें अस्पृश्य जातियां भी कहा जाता है) होती हैं। अन्य जातियां इन दोनों सीमाओं के मध्य में आती हैं। इस प्रकार जाति व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य जातियां उनसे निम्न स्तर पर हैं किंतु वे निम्नता के समान स्तर पर नहीं हैं। इसी कारण जाति व्यवस्था से सभी जातियां समान रूप से पीड़ित भी नहीं हैं। इसी श्रेणीगत असमानता के अनुसार शासक वर्ग अर्थात मनुवादी वर्ग द्वारा आर्थिक संसाधनों का भी असमान वितरण किया गया। अनुसूचित जातियों को शिक्षा और सम्पति अर्जित करने के अधिकार से वंचित तो किया ही गया इसके साथ ही साथ उनको मानवीय स्तर से भी नीचे गिराया गया। इसके द्वारा उनको मानसिक दास बना दिया गया जिससे उनकी शारीरिक दासता स्थाई हो जाए। इस कार्य में ब्राह्मणों ने अन्य जातियों से भी सहयोग लिया और इसके बदले में उन जातियों को कुछ सामजिक, राजनीतिक और आर्थिक लाभ मिला।
इसका निष्कर्ष यह है कि श्रेणीगत असमानता के कारण भारत में मनुवादी वर्ग लाभदायक स्थिति में है और वह इस लाभदायक स्थिति को छोड़कर वह जाति व्यवस्था का उन्मूलन करने और समतामूलक समाज का निर्माण करने के संघर्ष में शोषित जातियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नहीं  चल सकता। इसीलिये बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि ब्राह्मणों में आज तक वाल्टेयर जैसा कोई विद्रोही पैदा नहीं हुआ। बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने यह भी कहा था कि रूढ़िवादी ब्राह्मण और उदारवादी ब्राह्मण में कोई मूलभूत अंतर नहीं है बल्कि ये दोनों ब्राह्मणवाद या मनुवाद के दाएं और बाएं हाथ है जो आवश्यकतानुसार एक-दूसरे की सहायता करते रहते हैं जिससे मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था पर कोई आंच नहीं आये। यही कारण है कि मनुवादियों के विभिन्न संगठनों जैसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस या तथाकथित साम्यवादी पार्टियां आदि ये सभी एक ही उद्देश्य के लिए क्रियाशील हैं और वह उद्देश्य है मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को स्थायी बनाए रखना। जब शोषित वर्ग इनके एक रूप से ऊब जाता है तब ये मनुवादी लोग दूसरे रूप में सत्ता पर अधिकार कर लेते हैं। कांग्रेस, भाजपा और तथाकथित साम्यवादी तथा इन्ही जैसे अन्य राजनीतिक दल बारी-बारी से सत्ता में आते रहते हैं और मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को बचाये रहते हैं। इनमें सबसे धोखेबाज तथाकथित साम्यवादी लोग हैं। इन मनुवादी दलों के इस स्वरूप का वर्णन करते हुए मान्यवर श्री कांसीराम साहब ने कहा है कि:-
"ब्राह्मणवाद (मनुवाद) की पांच टीम हैं इंडिया में, कांग्रेस '' टीम है, बीजेपी 'बी' टीम है, जनता दल 'सी' है, सी0पी0एम0 'डी' और सी0पी0आई0 '' है, ये पांच टीमें हैं ब्राह्मणवाद (मनुवाद) की।"4
इस प्रकार इनका तथाकथित साम्यवाद, मनुवाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इनके तथाकथित साम्यवाद की परिभाषा सरल, स्पष्ट और संक्षिप्त शब्दों में इस प्रकार है:-
"मनुवादियों द्वारा मनुवादियों के हित के लिए, मनुवादियों में समानता (जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार एक ही जाति के सदस्यों के बीच केवल मनुवादियों की सामाजिक समानता), स्वतंत्रता (शोषित वर्ग का बिना किसी बाधा के शोषण करने की स्वतंत्रता) और बंधुत्व (मनुवादियों में जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार) के लिए समाज के उत्पादन के साधनों को पूर्णतः मनुवादियों के एकाअधिकार में लाने (वर्तमान में जो अतिसूक्ष्म परिमाण में शोषित वर्ग के अधिकार में भूमि, नौकरियां आदि हैं उनको भी हड़पने के लिए) और इस उत्पादन से प्राप्त सम्पूर्ण लाभों को मनुवादियों के हित में ही उपयोग करने हेतु शोषित वर्ग का निर्बाध शोषण करने के लिये मनुवादियों की चातुर्वर्ण्य व्यवस्था और जाति व्यवस्था पर आधारित मनुवादी वर्ग की तानाशाही की स्थापना ही 'तथाकथित (मनुवादी) साम्यवाद' है।"
अतः शोषित वर्ग को इन मनुवादियों से यह आशा नहीं करनी चाहिये कि यह लोग जाति व्यवस्था का उन्मूलन करेंगे और समतामूलक शोषणमुक्त समाज का निर्माण करेंगे क्योंकि इनको तो जाति व्यवस्था और मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के स्थायित्व में ही लाभ है। इस प्रकार यदि कोई तथाकथित उच्च जाति का व्यक्ति शोषित वर्ग का हितैषी बन रहा है तो वह ऐसा केवल मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को बचाने के लिए कर रहा है, भारतीय इतिहास इस प्रकार के उदाहरणों से भरा हुआ है। इसलिये जाति व्यवस्था का उन्मूलन करके समतामूलक समाज के निर्माण हेतु संघर्ष में शोषित वर्ग अकेला है और शोषित वर्ग ही स्वयं अपना नेतृत्व कर सकता है अन्य कोई नहीं। इस संघर्ष में बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की शिक्षायें अर्थात 'अम्बेडकरवाद' ही शोषित वर्ग का एकमात्र मार्गदर्शक है।
-----------------मैत्रेय
सन्दर्भ और टिप्पणियाँ
1.       मान्यवर कांसीराम साहब के साक्षात्कार, सम्पादक- 0 आर0 अकेला, संस्करण- 9 अक्टूबर 2011, पृष्ठ- 37-38, प्रकाशक:- आनन्द साहित्य सदन, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश।
2.       मान्यवर कांसीराम साहब के साक्षात्कार, सम्पादक- 0 आर0 अकेला, संस्करण- 9 अक्टूबर 2011, पृष्ठ- 71, प्रकाशक:- आनन्द साहित्य सदन, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश।
3.       जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), डॉ बी0 आर0 अम्बेडकर, बाबा साहेब डॉ0 आंबेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खण्ड-1, पृष्ठ- 94, पाँचवां संस्करण 2013, प्रकाशक:- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली।
4.       जी0टी0वी0, 19 दिसम्बर (सुबह 10 बजे) 1993 में प्रसारित साक्षात्कार, मा0 कांसीराम साहब के साक्षात्कार, सम्पादक- 0आर0 अकेला, संस्करण- 9 अक्टूबर 2011, प्रकाशक- आनन्द साहित्य सदन, सिद्धार्थ मार्ग, छावनी, अलीगढ़, पृष्ठ- 196.