Thursday, July 16, 2020

तथाकथित 'रामराज' का सच


मनुवादी लोग प्रायः 'रामराज' के गुण गाते रहते हैं। मनुवादी कहते हैं कि इस तथाकथित 'रामराज' में 'सभी' प्राणी सुखपूर्वक और शांति से रहेंगे। इसी कारण ये मनुवादी लोग 'रामराज' की तुलना यूरोपीय काल्पनिक राज्य 'यूटोपिया' से करते हैं। इसलिये शोषितों को यह समझने की अत्यंत आवश्यकता है कि मनुवादियों का यह तथाकथित 'रामराज' क्या है? और इसका स्वरूप क्या है?
सर्वप्रथम इस सत्य को जान लेना चाहिये कि वर्ग विभाजित, वर्ण विभाजित और जाति विभाजित समाज में यह आवश्यक नहीं है कि कोई वस्तु, विचार या आदर्श शोषक वर्ग के लिये हितकारी है तो वह शोषित वर्ग के लिये भी हितकारी होगी। इसी प्रकार भारतीय सन्दर्भ में कोई वस्तु, विचार या आदर्श मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग के लिये हितकारी है तो यह आवश्यक नहीं है कि वह शोषित जातियों के लिये भी हितकारी होगा। अब हम तथाकथित 'रामराज' की विवेचना करते हैं।
यह सर्वविदित है कि भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के कारण शोषित जातियों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिला और उनमें शिक्षा का प्रसार हुआ। जिसके परिणामस्वरूप उनमें अपने शोषण के विरुध्द चेतना जागृत हुई। शोषित जातियों के ही महामना जोतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, 0 रामास्वामी नायकर पेरियार आदि महान व्यक्तियों और विशेषतः बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के नेतृत्व में शोषितों द्वारा अपने मानवीय अधिकारों के लिये संघर्ष किया गया और तत्पश्चात बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा भारतीय संविधान की रचना करने के कारण शोषितों को सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति हुई। इस संघर्ष को मान्यवर श्री कांसीराम साहब और बहनजी सुश्री मायावती ने आगे बढ़ाया। इस कारण मनुवादी वर्चस्व में कुछ कमी आई है। जिससे मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग चिंतित भी हो गया है। इसलिये मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग अपने वर्चस्व को कठोरतापूर्वक पुनः स्थापित करने के लिये प्रयासरत है। मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था जनित अपनी सभी सुविधाओं को प्राप्त करने और शोषितों को उनके मानव अधिकारों से पूर्णतया वंचित करने के लिये प्रयत्नशील है। एक वाक्य में कहा जाये तो मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग 'मनुवाद' के शास्त्रीय स्वरूप को स्थापित करना चाहता है। इसके लिये मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता, स्वतंत्रता और मैत्री तथा मानव अधिकारों के विचारों से पूर्ण भारतीय संविधान को नकार कर वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के शास्त्रीय विचारों के आधार पर समाज का प्रतिक्रियावादी पुनर्गठन करना चाहता है। इस पुनर्गठित समाज व्यवस्था में शोषित जातियों के लोगों, स्त्रियों चाहे वे शोषित जातियों की हों या तथाकथित उच्च जातियों की और धार्मिक अल्पसंख्यकों को आजीवन मनुवादियों की दासता ही करनी पड़ेगी। अब इस परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट है कि मनुवादियों के तथाकथित 'रामराज' में समानता, स्वतंत्रता और मैत्री तथा मानव अधिकारों के विचारों का सर्वथा अभाव ही होगा। इसी कारण मनुवादियों का तथाकथित 'रामराज' सभी प्राणियों के लिये हितकारी भी नहीं हो सकता क्योंकि इस तथाकथित 'रामराज' में अल्पसंख्यक मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग तो विलासिता में डूबा रहेगा जबकि बहुसंख्यक वर्ग उनकी दासता करेगा। यहीं पर मनुवादियों के तथाकथित 'रामराज' और यूरोपीय 'यूटोपिया' के विचारों का अंतर भी स्पष्ट हो जाता है। 'यूटोपिया' एक सुखमय भविष्य की कल्पना है जिसमें किसी का शोषण नहीं होगा और सभी प्राणी सुखी रहेंगे। यह ऐसे आदर्श समाज की कल्पना है जो शोषणमुक्त और समतामूलक होगा। इस प्रकार यूटोपिया भूतकाल के किसी विचार से प्रेरणा भी ग्रहण नहीं करता बल्कि नवीन भविष्य का सृजन करता है। जबकि तथाकथित 'रामराज' भूतकाल को पुनः स्थापित करना चाहता है।
इस शोषक व्यवस्था को ही मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग तथाकथित 'रामराज' की चाशनी में डुबो कर शोषितों को भ्रमित करने हेतु प्रस्तुत करता है। मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग इस तथाकथित 'रामराज' की प्रेरणा इसके नाम के ही अनुसार ही मनुवादियों के तथाकथित भगवान राम के शासन काल से ही ग्रहण करने का दावा करता है। यह पूरी कहानी मूलतः वाल्मीकि कृत रामायण में वर्णित है और इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। परन्तु फिर भी रामायण की कहानी के अनुसार रामराज की विवेचना की जा सकती है।
रामराज की विशेषता श्रेणीगत असमानता है और इसी श्रेणीगत असमानता का मूर्तरूप वर्ण व्यवस्था है। वर्ण व्यवस्था के अनुसार चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं। ब्राह्मण सबसे उच्च होता है, उसके बाद क्षत्रिय, उसके बाद वैश्य और सबसे निम्न स्तर पर शूद्र होता है। रामराज में वर्ण व्यवस्था का कठोरता से पालन किया जाता है। वर्ण व्यवस्था के अनुसार शूद्र वर्ण का कार्य अन्य तीनो उच्च वर्णों की दासता करना ही है। परिणामस्वरूप शूद्र को कोई मानव अधिकार प्राप्त नहीं हैं। शूद्र शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता, अस्त्र-शस्त्र नहीं रख सकता और सम्पत्ति नहीं रख सकता आदि अयोग्यताएँ शूद्रों पर लादी गईं। वर्ण व्यवस्था के कारण ही राम ने शम्बूक ऋषि की हत्या की थी क्योंकि शम्बूक ऋषि शूद्र होते हुए भी शिक्षा प्राप्त करने हेतु प्रयत्न कर रहे थे जो कि मनुवादियों के अनुसार वर्ण व्यवस्था का घोर उल्लंघन था। इस कारण वर्ण व्यवस्था का उल्लंघन करने के अपराध हेतु दण्डित करने के लिये ही राम ने शम्बूक ऋषि की जघन्य हत्या कर दी। यह है रामराज में शूद्रों की स्थिति!
अब स्त्रियों की स्थिति पर भी विचार कर लिया जाए। राम ने सर्वसाधन सम्पन्न और शासक होते हुए भी लोकनिंदा का बहाना बनाकर अपनी गर्भवती पत्नी सीता को त्याग दिया और जंगल में अकेले अपने हाल पर छोड़ दिया। जबकि राम ने पहले ही सीता की अग्नि परीक्षा ले ली थी इस कारण भी राम को पति के कर्तव्य का निर्वहन करते हुए सीता के साथ दृढ़ता से खड़े होना चाहिये था और निंदा करने वालों को उचित उत्तर देना चाहिए था। क्या सीता के कोई मानव अधिकार नहीं थे? दूसरी घटना लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के साथ किया गया निंदनीय व्यवहार है। क्या सभ्य समाज में किसी स्त्री के नाक और कान काट कर उसे अपमानित करने को उचित ठहराया जा सकता है? जबकि उस स्त्री ने केवल प्रेम निवेदन भर किया हो! यह है रामराज में स्त्रियों की स्थिति! यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि रामायण की कहानी में अपमानित हुई दोनों स्त्रियाँ अर्थात सीता और शूर्पणखा सवर्ण ही थीं। सीता क्षत्रिय थी जबकि शूर्पणखा ब्राह्मण थी। क्योंकि रावण ब्राह्मण था और शूर्पणखा रावण की बहन थी। इन उदाहरणों से रामराज में सवर्ण स्त्रियों की दुर्दशा का भी ज्ञान हो जाता है।
इसके अतिरिक्त रामराज में छल-कपट, विश्वासघात के अनेकों प्रसंग हैं। राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने हेतु निंदनीय षड़यंत्र रचे गए हैं। तब रामराज को कोई कैसे ऐसा आदर्श मान सकता है जिसमें सभी सुखी रहेंगे और जिसकी पुनः प्राप्ति हेतु प्रयास करना चाहिये?
वास्तविकता यह है कि तथाकथित 'रामराज' मनुवादी वर्ग के लिये तो स्वर्ग था जबकि शोषितों के लिये यातनागृह। इसीलिये मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग पुनः अपने उसी स्वर्ग को प्राप्त करना चाहता है। इसी कारण मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग साहित्य में भी भूतकाल के स्वर्णयुग के गुणगान में व्यस्त रहता है। परन्तु शोषित वर्ग को इस मनुवादी षड़यंत्र अर्थात तथाकथित 'रामराज' या 'भूतकाल के स्वर्णयुग' से सावधान रहने और इसकी पुनः स्थापना के किसी भी प्रयत्न को विफल करने की आवश्यकता है क्योंकि इस तथाकथित 'रामराज' में मनुवादियों की दासता करना ही शोषितों की नियति बन जायेगा।
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