Wednesday, February 20, 2019

आर्थिक आधार पर बने संगठन विफल क्यों?

भारत सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013 में पंजीकृत ट्रेड यूनियनों की कुल संख्या 11556 थी और जिनकी कुल सदस्य संख्या 3231000 (बत्तीस लाख इकत्तीस हजार) थी। इसके अतिरिक्त पूरे देश में कुकुरमुत्तों की तरह हजारों ऐसे गैर-सरकारी संगठन (Non-Government Organization) हैं जो किसानों और श्रमिकों के आर्थिक हितों के लिये कार्य करने का दावा करते हैं। इसी के साथ अधिकांश राजनीतिक दलों के अपने श्रमिक और किसान संगठन हैं। पूरे देश में हजारों गैर-राजनीतिक श्रमिक और किसान संगठन भी हैं। इसी तरह देश भर में सैकड़ों तथाकथित साम्यवादी राजनीतिक संगठन हैं जो किसानों और श्रमिकों की मुक्ति हेतु संघर्ष करने का डंके की चोट पर दावा करते हैं। इस प्रकार देखा जाए तो देश भर में हजारों ऐसे संगठन हैं जो किसानों और श्रमिकों के आर्थिक हितों के लिये संघर्ष करने का दावा करते हैं। लेकिन फिर भी यह विचार करने योग्य प्रश्न है कि देश में श्रमिकों और किसानों के आर्थिक हितों के लिये संघर्ष करने का दावा करने वाले हजारों संगठन होने के बाद भी देश के श्रमिक और किसान अत्यधिक विपन्न क्यों हैं और क्यों देश में तथाकथित साम्यवादियों की 'बहुप्रतीक्षित' क्रान्ति अभी तक नहीं हुई?
इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने के लिये हमें भारत की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का विश्लेषण करना होगा। भारतीय सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को समझने के लिए सर्वप्रथम जाति व्यवस्था को समझने की आवश्यकता है।
ब्राह्मणों ने सर्वप्रथम समाज को वर्ण व्यवस्था के अनुसार बांटा तत्पश्चात उन्होंने वर्ण व्यवस्था से जाति व्यवस्था का सृजन किया। अतः ब्राह्मणों ने समाज को विखंडित किया। तथाकथित हिन्दू धर्म और राज्य सत्ता का उपयोग करके ब्राह्मणों ने समाज के उत्पादन साधनों और सारी संपत्ति पर अपना और अपने सहयोगियों अर्थात ब्राह्मणवादियों या मनुवादियों का प्रभुत्व स्थापित कर दिया तथा समाज में अपने लिए लाभदायक स्थिति निर्मित कर ली। लेकिन क्योंकि ब्राह्मण समुदाय शोषित जातियों के शोषण पर ही निर्भर रहा इसलिये उन्होंने इन शोषित जातियों को समाज में निम्न स्तर पर बनाये रखने और अपनी प्रमुखता को स्थायी रखने के लिए भी तथाकथित हिन्दू धर्म और राज्य सत्ता का आश्रय लिया। इस कार्य में सहयोग के लिये ब्राह्मणों ने 'श्रेणीगत असमानता (Graded Inequality)' के सिद्धांत को जन्म दिया। जिसका अर्थ है कि वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था में सर्वोच्च स्तर पर ब्राह्मण होगा तथा अन्य वर्ण और जातियाँ भले ही ब्राह्मणों से निम्न स्तर पर होंगी लेकिन वे निम्नता के समान स्तर पर नहीं होंगी बल्कि उनमें भी श्रेणीक्रम होगा। इस प्रकार जाति व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान पर ब्राह्मण जातियाँ और निम्नतम स्थान पर अनुसूचित जातियाँ (जिन्हें अस्पृश्य जातियाँ भी कहा जाता है) होती हैं। अन्य जातियाँ इन दोनों सीमाओं के मध्य में आती हैं। इस प्रकार जाति व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य जातियाँ उनसे निम्न स्तर पर हैं किंतु वे निम्नता के समान स्तर पर नहीं हैं। इसी कारण जाति व्यवस्था से सभी जातियाँ समान रूप से पीड़ित भी नहीं हैं। इसी श्रेणीगत असमानता के सिद्धांत के अनुसार आर्थिक संसाधनों और सम्पत्ति का भी असमान वितरण किया गया। अनुसूचित जातियों को शिक्षा प्राप्त करने और सम्पति अर्जित करने के अधिकार से वंचित तो किया ही गया इसके साथ ही साथ उनको मानवीय स्तर से भी नीचे गिराया गया। उनको मानसिक दास बना दिया गया जिससे उनकी शारीरिक दासता स्थाई हो जाए। इस कार्य में ब्राह्मणों ने अन्य जातियों से भी सहयोग लिया और इसके बदले में उन जातियों को लाभ मिला। ब्राह्मणों द्वारा अपनी इस सर्वोच्च स्थिति को बनाये रखने हेतु प्रत्येक उपाय, प्रत्येक साधन, प्रत्येक छल-प्रपंच और धोखाधड़ी को अपनाया गया। ब्राह्मणों ने सदैव अपने स्वार्थों को समाज, राज्य और देश हित से ऊपर रखा। भारतीय इतिहास इन प्रपंचों के उदाहरणों से भरा हुआ है। राज्य या देश भले नष्ट हो जाए लेकिन इनकी सर्वोच्चता पर आंच नहीं आनी चाहिये। इसी कारण से भारत हजारों वर्ष दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहा।
भारतीय समाज की संरचना में मनुवाद का हजारों वर्षों से अत्यधिक प्रभाव रहा है और इस मनुवाद ने जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था के अनुसार ही लोगों की आर्थिक स्थिति भी निर्मित की है। वर्गीय दृष्टि से देखने पर आज भी अधिकांश निर्धन लोग तथाकथित निम्न जातियों से और अधिकांश धनवान या पूंजीपति लोग तथाकथित उच्च जातियों से हैं। इस प्रकार जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था सामाजिक व्यवस्थाएं होने के साथ ही साथ आर्थिक व्यवस्थाएं हैं। इसी कारण मनुवादी व्यवस्था को पूंजीवादी व्यवस्था के साथ अनुकूलन करने में आसानी हुई। मनुवादी व्यवस्था के कारण पूंजीपति वर्ग के अधिकांश लोग तथाकथित उच्च जातियों के या मनुवादी लोग हैं और शोषित वर्ग या श्रमिक वर्ग में अधिकांशतः अनुसूचित जातियां सम्मिलित हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ ही साथ आर्थिक व्यवस्थाएं भी हैं। जिसमें तथाकथित निम्न जातियों के शोषण पर तथाकथित उच्च जातियां अय्याशी करती हैं।
जब हम 'किसान' और 'श्रमिक' शब्द का प्रयोग करते हैं तो यह कोई ऐसा समूह नहीं होता जिसके एकसमान हित हों। वास्तव में 'किसान' और 'श्रमिक' नामक समूह में हजारों जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोग सम्मिलित होते हैं। मनुवाद जनित वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था और श्रेणीगत असमानता के कारण इन हजारों जातियों के किसानों और श्रमिकों में भी मनुवादी मानसिकता होती है जो इनको एक समूह में संगठित होने से रोकती है। भारत में मनुवादी व्यवस्था के कारण लोग अपनी 'सामाजिक स्थिति' को अपनी 'आर्थिक स्थिति' से अधिक महत्व देते हैं। क्योंकि अधिकांशतः 'सामाजिक स्थिति' ने ही लोगों की 'आर्थिक स्थिति' का निर्धारण किया है। 'किसान' और 'श्रमिक' नामक समूह के विभिन्न जातियों में 'शत्रुतापूर्ण' ढंग से विभाजित होने के परिणामस्वरूप ही जब आर्थिक हितों के आधार पर कोई संगठन बनाया जाता है तब उन संगठनों में आर्थिक हितों के ऊपर सामाजिक स्थिति प्रभावी हो जाती है जिस कारण विभिन्न जातियों के किसान और श्रमिक समान आर्थिक स्थिति के होते हुए भी स्वयं को एक-दूसरे से ऊंचा या नीचा मानते हैं, जो कि उनको संगठित होकर संघर्ष करने में बाधा उत्पन्न करता है। परन्तु यही स्थिति मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग के लिये लाभदायक होती है।
इस कारण 'किसानों' और 'श्रमिकों' के कुछ आर्थिक हित समान होते हुए भी वो अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिये संगठित होकर मनुवादी-पूँजीवादी वर्ग से प्रभावशाली ढंग से संघर्ष करने में असफल रहते हैं।
इसके साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 'किसान' और 'श्रमिक' समान सामाजिक और आर्थिक स्थिति वाला समूह नहीं है इसलिये हजारों हेक्टेयर भूमि का स्वामी मनुवादी भी स्वयं को 'किसान' और लाखों रुपयों की सम्पत्ति का स्वामी मनुवादी भी स्वयं को 'श्रमिक' कहता है। इस प्रकार ये 'अभिजात्यवर्गीय' या मनुवादी तथाकथित 'किसान' और 'श्रमिक' भी किसानों और श्रमिकों के आर्थिक आधार पर निर्मित संगठनों में प्रविष्ट हो जाते हैं तत्पश्चात अपनी परम्परागत सामाजिक स्थिति और आर्थिक स्थिति के कारण इन संगठनों के नेतृत्वकर्ता बन जाते हैं।
इस प्रकार आर्थिक आधार पर बने 'किसानों' और 'श्रमिकों' के इन संगठनों के नेतृत्वकर्ता बनकर ये मनुवादी लोग किसानों और श्रमिकों को प्रत्येक वो कार्य करने से रोकते हैं जिनसे 'मनुवादी-पूंजीवादी' व्यवस्था को क्षति पहुंचने की संभावना हो और ऐसी नीतियां अपनाते हैं जिनसे किसानों और श्रमिकों का आक्रोश दूसरी दिशा में मोड़कर मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को सुरक्षित रखा जा सके।
इस प्रकार स्पष्ट ही है कि किसानों और श्रमिकों के आर्थिक आधार पर निर्मित इन संगठनों के नेतृत्वकर्ता समूह और अधिकांश किसानों तथा श्रमिकों के हितों में अत्यधिक भिन्नता उत्पन्न हो जाती है क्योंकि नेतृत्वकर्ता समूह और अधिकांश किसान तथा श्रमिक भिन्न 'वर्गों' के सदस्य होते हैं। नेतृत्वकर्ता समूह शोषक वर्ग अर्थात मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग के सदस्य और अधिकांश किसान और श्रमिक शोषित वर्ग अर्थात अधिकांशतः शोषित जातियों और विशेषतः अनुसूचित जातियों (जिन्हें अस्पृश्य जातियां भी कहते हैं) के सदस्य होते हैं। इस प्रकार नेतृत्वकर्ता समूह और अधिकांश किसानों और श्रमिकों के वर्गीय हित सर्वथा विपरीत होते हैं। नेतृत्वकर्ता समूह का हित मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने में और अधिकांश किसानों और श्रमिकों का हित मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में होता है।
शोषितों को इस बात से भ्रमित नहीं होना चाहिये कि किसानों और श्रमिकों के आर्थिक आधार पर निर्मित इन संगठनों के नेतृत्वकर्ता तथाकथित मनुवादी जातियों के होने के बावजूद वे वैचारिक रूप से मनुवादी-पूँजीवादी नहीं होते और वे किसानों और श्रमिकों के हित में कार्य करते हैं। यह केवल एक भ्रम ही है क्योंकि मनुवादी लोग किसी भी विचारधारा का मुखौटा लगा लें लेकिन वो आंतरिक रूप से मनुवादी ही रहते हैं तथा वो मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा हेतु प्रत्येक कार्य करते हैं।
मनुवादियों की इसी प्रवृत्ति का वर्णन करते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि:-
"मेरे निर्णय के अनुसार धर्मनिरपेक्ष ब्राह्मणों और पुरोहित ब्राह्मणों में भेद करना व्यर्थ है। वे दोनों आपस में रिश्तेदार हैं। वे शरीर की दो भुजाएं हैं। एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण का अस्तित्व बनाये रखने हेतु लड़ने के लिये बाध्य है।"1
इससे स्पष्ट है कि मनुवादी किसी भी विचारधारा का मुखौटा लगा ले या स्वयं को कितना भी उदारवादी, प्रगतिशील दिखाए परन्तु वह मनुवादी व्यवस्था की सुरक्षा हेतु प्रत्येक कार्य करेगा। इसी प्रकार भारत में हजारों तथाकथित साम्यवादी दलों में घुसे हुए मनुवादी कहते हैं कि वो साम्यवादी या मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित हैं और इसलिये मनुवाद, जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था और श्रेणीगत असमानता में विश्वास नहीं करते। तो शोषितों को यह बात गांठ बांध लेनी चाहिये कि ये मनुवादी ऐसा केवल शोषितों को भ्रमित करने के लिये कहते हैं जिससे शोषितों के संघर्ष को दिशाहीन करके असफल किया जा सके और मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को सुरक्षित रखा जा सके।
उपासक शीलप्रिय बौध्द ने सम्यक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित लेखों के संकलन की पुस्तक "बौध्द धर्म और साम्यवाद" की संपादकीय में इन तथाकथित साम्यवादी ठगों की असलियत का वर्णन किया है, उन्ही के शब्दों में:-
"2006 के दशहरे के दिनों में कोलकाता में सदा की भांति दुर्गा पूजा का उत्सव मनाया जा रहा था। पश्चिम बंगाल सरकार (तत्कालीन वामपंथी सरकार) के एक मंत्री पूजा की थाली लिये अपने हिंदुत्व की वेश-भूषा में देवी की अर्चना करने जब अपने कदम बढ़ा रहे थे तो एक मीडिया-कर्मी ने साहस बटोर कर उन मंत्री महोदय से प्रश्न कर दिया कि आप तो कम्युनिस्ट (साम्यवादी) हैं और पूजा करने जा रहे हैं। कम्युनिस्ट तो धार्मिक कर्म-काण्डों में विश्वास नहीं करते। इस पर उन मंत्री महोदय ने जो उत्तर दिया वह उन सभी दलित साम्यवादियों के लिये आँख खोलने वाला था। मंत्री महोदय ने मीडिया-कर्मी को तपाक से उत्तर दिया- 'पहले मैं ब्राह्मण हूँ, बाद में कम्युनिस्ट। अतः पूजा करना मेरा प्रथम धर्म है'"2
वास्तव में आर्थिक आधार पर निर्मित किसानों और श्रमिकों के संगठनों और तथाकथित साम्यवादी दलों की नीति साम्यवाद, मार्क्सवाद की बजाय अर्थवाद से भी निर्धारित होती है। अर्थवाद से आशय यह है कि शोषित वर्ग को क्रान्ति द्वारा आमूल-चूल परिवर्तन करने के लिये संगठित करने के स्थान पर वर्तमान व्यवस्था में ही उनको मजदूरी या वेतन में वृद्धि, ऋण माफी आदि तुच्छ आर्थिक मांगों की ओर मोड़कर वर्तमान शोषक व्यवस्था को सुरक्षित करना।
इस प्रकार अर्थवाद वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा हेतु 'सुरक्षा वाल्व (Safety Valve)' का कार्य करता है। इसके साथ ही ये शोषित वर्ग के हित में कोई कार्य नहीं करता। यदि अर्थवाद द्वारा श्रमिकों की मजदूरी और वेतन आदि में कुछ वृद्धि हो भी जाती है तब भी वो वृद्धि पूंजीपतियों के मुनाफे में हुई वृद्धि के सापेक्ष अत्यंत कम होती है जिसके परिणामस्वरूप यद्यपि श्रमिकों की मजदूरी में मैद्रिक रूप में वृद्धि हुई परन्तु जीवन-निर्वाह व्यय अर्थात महंगाई बढ़ने के कारण श्रमिक सापेक्ष रूप से अधिक निर्धन हो जाता है। इस प्रकार वास्तव में श्रमिक की मजदूरी या वेतन सापेक्ष रूप से पहले से भी कम हो जाता है। यही कारण है कि मार्क्स और लेनिन ने अर्थवाद की कटु आलोचना करते हुए शोषितों को क्रान्ति द्वारा राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने और उत्पादन के साधनों पर अधिकार करने के लिये संघर्ष करने हेतु कहा है।
परन्तु भारत में साम्यवाद के नाम पर राजनीति की दुकान चलाने वाले तथाकथित साम्यवादियों की बात ही निराली है। ये तथाकथित साम्यवादी तो अर्थवाद को ही मार्क्सवाद मानते हैं। ये तथाकथित साम्यवादी ठग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की बात तो कभी सपने में भी नहीं सोचते हैं।
ये तथाकथित साम्यवादी ठग शोषितों को ठग कर केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में लम्बी अवधि तक सत्तासीन रहे और वर्तमान समय में भी केरल में इन्ही ठगों की सरकार है। परन्तु इन तथाकथित साम्यवादी ठगों ने शोषितों हेतु रत्ती भर कार्य भी नहीं किया और स्वयं को निम्न पूँजीवादी आर्थिक मांगों तक ही सीमित रखा। इन तथाकथित साम्यवादियों ने सत्ता के लालच में विभिन्न मनुवादी-पूँजीवादी राजनीतिक दलों अर्थात कभी जनता दल, कभी जनसंघ, कभी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसकी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी, कभी समाजवादी पार्टी और कभी कांग्रेस आदि से प्रत्यक्ष या गोपनीय सांठ-गांठ की।
इन तथाकथित साम्यवादी ठगों ने वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के उन्मूलन हेतु कभी भी गंभीर प्रयास नहीं किया क्योंकि इन ठगों का वास्तविक उद्देश्य तो जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था को बनाये रखना है। मनुवादियों द्वारा प्रतिदिन शोषितों पर अत्याचार किये जाते हैं परन्तु इन तथाकथित साम्यवादी ठगों के कान पर जूं नहीं रेंगती।
वास्तव में इनका तथाकथित साम्यवाद, मनुवाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
अमेरिकी पत्रकार श्री सेलिंग एस0 हैरीसन ने दिनांकों 21 और 28 फरवरी तथा 9 अक्टूबर 1953 को बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का साक्षात्कार लिया था जिसमें साम्यवादियों पर टिप्पणी करते हुए बाबा साहेब ने कहा कि:-
"साम्यवादी पार्टी वास्तव में कुछ ब्राह्मण लड़कों- डांगे और अन्य, के हाथों में थी। वे मराठा समुदाय और अनुसूचित जातियों को प्रभावित करने का प्रयत्न कर चुके हैं। परन्तु वे महाराष्ट्र में कोई स्थान नहीं बना पाए। क्यों? क्योंकि वे अधिकांशतः ब्राह्मण लड़कों का झुंड है। रूसियों ने भारत में साम्यवादी आंदोलन की जिम्मेदारी उनको सौंपकर बहुत बड़ी गलती की है। या तो रूसी लोग भारत में साम्यवाद की स्थापना नहीं चाहते थे- वे केवल ढोल पीटने वाले लड़के चाहते थे- या वे समझ नहीं पाए।"3
इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में किसानों और श्रमिकों के आर्थिक आधार पर बने संगठनों और तथाकथित साम्यवादी दलों द्वारा शोषितों की शोषण से मुक्ति सम्भव नहीं है क्योंकि इन संगठनों में घुसे हुए मनुवादी-पूंजीवादी लोग शोषितों के संघर्ष को दिशाहीन करके मनुवादी-पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा करते हैं। यही कारण है कि भारत में हजारों ट्रेड यूनियनों, हजारों किसानों और श्रमिकों के संगठनों और सैकड़ों तथाकथित साम्यवादी दलों के होते हुए भी किसान और श्रमिक विपन्न हैं और इसीलिए आज तक साम्यवादी अर्थों में कोई क्रान्ति नहीं हो पायी।
---------- मैत्रेय
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सन्दर्भ और टिप्पणियाँ
1.        जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड 1, पंचम संस्करण 2013, पृष्ठ- 93-94, प्रकाशक- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार। और
        Dr. Baba Saheb Ambedkar Writings and Speeches, Volume 1, Third Edition 2016, Page- 70,
Publisher: - Education Department, Government of Maharashtra.
2.        बौध्द धर्म और साम्यवाद, डॉ0 बी0 आर0 अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2008, नामक पुस्तक में उपासक शीलप्रिय बौध्द द्वारा लिखित संपादकीय का अंश, पृष्ठ-3.
Dr. Baba Saheb Ambedkar Writings and Speeches, Volume 17 Part-1, First Edition 2003, Reprint 2014, Page- 425, Publisher: - Dr. Ambedkar Foundation, Ministry of Social Justice and Empowerment, Government of Ind

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