Thursday, April 30, 2020

विरोधाभास का मूल कारण


किसी भी विवेकशील व्यक्ति ने भारत के लोगों में एक विरोधाभास अवश्य देखा होगा। वह विरोधाभास यह है कि प्रतिदिन शोषितों, निर्धनों, महिलाओं आदि पर अत्याचार होते हैं, प्रतिदिन बलात्कार होते हैं, करों और महंगाई का बोझ बढ़ रहा है आदि परन्तु अधिकांश लोग संगठित होकर विरोध नहीं करते जबकि दूसरी ओर धार्मिक उन्माद, मन्दिर-मस्जिद से जुड़े मामले, गाय और गौमांस आदि मामलों में अधिकांश लोग संगठित होकर हिंसा करने लगते हैं। दूसरे शब्दों में भारत के अधिकांश लोग कुछ विषयों पर तो चुप्पी साधे रहते हैं और संगठित होकर विरोध नहीं करते हैं परन्तु कुछ विषयों पर तुरन्त संगठित होकर अत्यधिक हिंसक व्यवहार करते हैं।
हम इस विरोधाभास के कारणों पर ही विचार करेंगे। उपरोक्त विरोधाभास से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत के अधिकांश लोग कानूनों के उल्लंघन, हिंसा, घातक चोटों और मृत्यु से नहीं घबराते। क्योंकि यदि ऐसा होता तो फिर ये लोग साम्प्रदायिक दंगे आदि संगठित हिंसक विरोध-प्रदर्शन ना ही करते और ना ही ऐसे प्रदर्शनों में सम्मिलित होते। इसलिए लोगों के संगठित होने का यह कारण नहीं है कि लोगों को कानून के उल्लंघन, हिंसा या मृत्यु का भय है। वास्तव में यदि किसी विषय पर लोगों में समान अनुभूति, समान उद्देश्य हों तो लोग उस विषय पर संगठित हो जाते हैं। परन्तु भारत में मनुवादी व्यवस्था के कारण लोगों में ऐसी भावना उत्पन्न नहीं हो पाती।
इसी तथ्य पर बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि:-
"हिन्दुओं में उस चेतना का सर्वथा अभाव है, जिसे समाज विज्ञानी 'समग्र वर्ग की चेतना' कहते हैं। उनकी चेतना समग्र वर्ग से सम्बन्धित नहीं है। प्रत्येक हिन्दू में जो चेतना पायी जाती है, वह उसकी अपनी ही जाति के बारे में होती है।"1
इसी कारण लोग समग्र समाज के हितों की उपेक्षा करके केवल अपनी जाति के हितों को प्राथमिकता देते हैं। जाति व्यवस्था के कारण भारतीय समाज हजारों खण्डों में बंट चुका है। इन हजारों खण्डों के बीच घृणा और तिरस्कार के सम्बन्ध हैं। विभिन्न जातियाँ जितना सम्भव हो सके एक-दूसरे से पृथक जीवन यापन करती हैं और विवाह सम्बन्ध केवल अपनी जाति में ही स्थापित करती हैं। सामाजिक कार्यों में भी विभिन्न जातियों को जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार ही दायित्व और सम्मान प्राप्त होते हैं।
समान रीति-रिवाज और समान पूजा पध्दतियां ही समाज के निर्माण हेतु पर्याप्त नहीं हैं। इसी विषय में बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि:-
"कुछ बातों में समानता एक समाज के निर्माण के लिए पर्याप्त नहीं है। लोग एक समाज का निर्माण करते हैं, क्योंकि वे समान रूप से व्यवहार करते हैं। व्यवहार में समभाव का होना समानुरूप से व्यवहार करने से सर्वथा भिन्न है। चीजों को समभाव रूप में अपनाने का एकमात्र उपाय यही है कि सभी का एक-दूसरे से पूरा-पूरा सम्पर्क रहे।"2
यह पृथकता की स्थिति समाज के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए तथाकथित बुद्धिजीवी भले ही 'अनेकता में एकता' का खोखला नारा लगाएं परन्तु वास्तविकता यही है कि जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को रोगग्रस्त बना दिया है और समाज में एकता की सम्भावना को घोर क्षति पहुंचाई है। जाति व्यवस्था द्वारा समाज को पहुँचाई गयी क्षति का उल्लेख करते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि:-
"लोगों को जो एक चीज आपस में एकसूत्र में बांधती है और उन्हें एक समाज में पूरी तरह से शामिल करती है; वह यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक गतिविधियों में इस प्रकार भागीदार बनाया जाए ताकि उसकी सफलता में उसे स्वयं अपनी सफलता और उसकी विफलता में अपनी विफलता दिखाई दे। जाति प्रथा इस प्रकार की सामूहिक गतिविधियों का आयोजन नहीं होने देती और सामूहिक गतिविधियों को इस प्रकार वर्जित करके ही उसने हिन्दुओं को एक ऐसे समाज के रूप में उभरने से रोका है, जिसमें सभी समुदाय एक होकर जियें और उनमें एक ही चेतना व्याप्त हो जाये।"3
जाति व्यवस्था ने लोगों को केवल पृथक-पृथक समूहों में ही नहीं बांटा बल्कि उनको एक-दूसरे का शत्रु भी बना दिया। ऐसे समाज में जिसमें हजारों समूह एक-दूसरे से शत्रुतापूर्ण भावना रखते हों उसमें एकता होना और सामूहिक उद्देश्यों के लिये सहमति के आधार पर संगठित होना असम्भव है। ऐसे समाज में प्रत्येक जाति केवल अपने स्वार्थ के लिये ही समर्पित रहती है और उसमें सामूहिकता की भावना नहीं होती। इसी विषय पर बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि:-
"जब भी कोई समुदाय अपने स्वार्थ से प्रेरित हो जाता है तो उसमें असामाजिकता की भावना उत्पन्न हो जाती है। इसके कारण वह समुदाय अन्य समुदायों से पूरा संवाद और सम्पर्क करना बंद कर देता है, क्योंकि वह अपने स्वार्थ की सुरक्षा करना ही अपना उद्देश्य मान बैठता है। यह असामाजिक भावना अर्थात अपने स्वार्थ की रक्षा की भावना ही विभिन्न जातियों के एक-दूसरे से अलग होने का एक वैसा ही विशिष्ट लक्षण है, जैसा कि अलग-अलग राष्ट्रों का। ब्राह्मणों का मुख्य उद्देश्य यह है कि गैर-ब्राह्मणों के विरुद्ध अपने स्वार्थ की रक्षा करें और गैर-ब्राह्मणों का मुख्य उद्देश्य यह है कि ब्राह्मणों के विरुद्ध अपने स्वार्थ की रक्षा करें। इसलिए हिन्दू समुदाय विभिन्न जातियों का संग्रह मात्र नहीं है, बल्कि यह शत्रुओं का समुदाय है। उसका प्रत्येक विरोधी वर्ग स्वयं अपने लिए और अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही जीवित रहना चाहता है।"4
जाति व्यवस्था द्वारा लोगों को संगठित होना असम्भव बना दिये जाने का उल्लेख करते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि:-
"जब तक जाति प्रथा रहेगी, हिन्दुओं में संगठन नाम की कोई बात नहीं रहेगी और जब तक उनमें संगठन नहीं होगा, हिन्दू कमजोर और डरपोक रहेंगे। हिन्दू कहते हैं कि उनकी कौम बड़ी सहनशील है। मेरे मत से यह बात सही नहीं है। अनेक अवसरों पर यदि उनका असहनीय रूप देखा जा सकता है और कुछ अवसरों पर उनमें सहनशीलता देखी जाती है, तो इसका कारण यह है कि या तो वे विरोध करने में अत्यधिक अशक्त हैं या पूरी तरह उदासीन हैं। हिन्दुओं की यह उदासीनता इस कदर उनकी आदत का हिस्सा बन चुकी है कि हिन्दू किसी अपमान या अन्याय को कायर बनकर सहता रहेगा। मौरिस के शब्दों में उनमें यह दिखाई देता है कि "बड़े लोग छोटे लोगों को कुचल रहे हैं, ताकतवर लोग कमजोरों को मार रहे हैं, क्रूर लोग निडर होकर विचरण कर रहे हैं, दयालु लोग साहस होने के कारण चुप हैं और श्रीमान लोग लापरवाह हैं।" हिन्दू देवता भी धैर्यवान और सहिष्णु हैं, इसलिए अन्याय और उत्पीड़न के शिकार हुए हिन्दूओं की दयनीय स्थिति की कल्पना करना असम्भव नहीं है। उदासीनता किसी समुदाय को लगने वाली सबसे घातक बीमारी है। हिन्दू परस्पर इतने उदासीन क्यों हैं? मेरे विचार से यह उदासीनता जाति प्रथा के कारण है और इसके कारण किसी अच्छे काम के लिये भी उनमें संगठन और सहयोग होना असम्भव हो गया है।"5
इस प्रकार स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था ने लोगों को हजारों खण्डों में बांटकर उनकी मानसिकता इस तरह की बना दी है कि प्रत्येक व्यक्ति दूसरी जाति के व्यक्तियों से या तो घृणा करता है या उनकी उपेक्षा करता है। यदि वह किसी व्यक्ति पर अत्याचार होते हुए देखता भी है तो यह सोचता है कि पीड़ित व्यक्ति उसकी जाति का नहीं है इसलिए उसे दूसरे के मामलों से क्या लेना-देना? इस तरह वह व्यक्ति उदासीनता का व्यवहार करता है। यदि पीड़ित व्यक्ति उसकी ही जाति का हो तो भी उसे यह विश्वास नहीं होता कि अन्य लोग उसका साथ देंगे क्योंकि अन्य लोगों की भी उसी की तरह की मानसिकता होती है। इस तरह वह उस पीड़ित व्यक्ति की सहायता करने में स्वयं को अकेला अनुभव करता है। इस अकेलेपन के कारण ही वह अपनी जाति के पीड़ित व्यक्ति की सहायता भी नहीं करता। इस कारण भले ही लोगों की आंखों के सामने अत्याचार होते हैं, महिलाओं के साथ बलात्कार और सामूहिक बलात्कार की घटनाएं होती हैं, करों और महंगाई में वृद्धि होती है आदि लेकिन लोग संगठित होकर विरोध नहीं करते।
इसी तथ्य का उल्लेख करते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि:-
"जातिप्रथा का हिन्दुओं की नैतिकता पर प्रभाव सामान्यतया सोचनीय है। जातिप्रथा ने सामूहिक चेतना को मार दिया है। जातिप्रथा ने सामूहिक कल्याण की भावना को नष्ट कर दिया है। जाति प्रथा के कारण किसी भी विषय पर सार्वजनिक सहमति का होना असम्भव हो गया है। हिन्दुओं के लिए उनकी जाति ही जनता है। उनका उत्तरदायित्व अपनी जाति तक सीमित है। उनकी निष्ठा अपनी जाति तक सीमित है। गुणों का आधार भी जाति ही है और नैतिकता का आधार भी जाति ही है। सही व्यक्ति के प्रति (अगर वह उनकी अपनी जाति का नहीं है) उनकी सहानुभूति नहीं होती। गुणों की कोई सराहना नहीं है, जरूरतमंद के लिये सहायता नहीं है। दुखियों की पुकार का कोई जवाब नहीं है। अगर सहायता है तो वह केवल जाति मात्र तक सीमित है। सहानुभूति है लेकिन अन्य जातियों के लोगों के लिए नहीं।"6
इस प्रकार स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था ने लोगों को सही उद्देश्यों के लिये संगठित होकर विरोध करने में अक्षम बना दिया है।
परन्तु अभी भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला है कि जब लोग जाति व्यवस्था के कारण सही उद्देश्यों के लिये संगठित नहीं हो पाते तो फिर वे साम्प्रदायिक दंगों, मन्दिर-मस्जिद, गाय, गौमांस आदि जैसे विषयों पर क्यों संगठित होकर हिंसक व्यवहार करते हैं?
इसके लिये हमें दो बिन्दुओं पर विचार करना होगा। पहला कि जिन विषयों पर लोग संगठित होकर विरोध और हिंसा करते हैं उन विरोध-प्रदर्शनों में नेतृत्वकर्ता किस वर्ग के होते हैं? दूसरा कि इस तरह के विरोध-प्रदर्शनों द्वारा किस वर्ग को लाभ मिलता है? यदि इन विरोध-प्रदर्शनों का अध्ययन किया जाए तो यह ज्ञात होगा कि इनमें नेतृत्वकर्ता मनुवादी वर्ग के लोग होते हैं। क्योंकि जाति व्यवस्था जनित प्रभुत्व, अधिकांश लोगों की मनुवादी मानसिकता, शोषित वर्ग की मानसिक दासता और अज्ञानता के कारण मनुवादी वर्ग शोषित वर्ग और विशेषतः शोषित जातियों को भेड़-बकरियों की तरह हाँक कर विरोध-प्रदर्शनों और दंगों आदि में ले जाता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इन विरोध-प्रदर्शनों आदि से मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग को ही लाभ मिलता है। इस प्रकार धार्मिक उन्माद, मन्दिर-मस्जिद आदि इसी तरह के विषयों पर लोग इसीलिए सरलता से संगठित हो जाते हैं क्योंकि इन विषयों पर उनको मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग संगठित करता है। दूसरे शब्दों में अधिकांश लोगों को केवल उन्हीं विषयों पर प्रभावी रूप से संगठित किया जाता है जो विषय मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग के हित में होते हैं। यही कारण है कि चाहे लोगों की आंखों के सामने शोषितों पर अत्याचार हों, महिलाओं के साथ बलात्कार और सामूहिक बलात्कार हों, करों और मंहगाई का बोझ बढ़ता जाए आदि परन्तु लोग संगठित होकर विरोध नहीं करते क्योंकि ऐसा करना मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग के हित में है, यद्यपि जब विरोधी सरकारों की निंदा करनी हो तो मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग इन विषयों पर भी लोगों को भेंड़-बकरियों की तरह हांककर संगठित कर देता है। इसी तरह दंगों, धार्मिक उन्माद, मन्दिर-मस्जिद आदि विषयों पर भी मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग अपने स्वार्थों के लिये लोगों को संगठित करके हिंसा फैलाता है।
इसलिए जब तक शोषित वर्ग में बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करके शोषित वर्ग को उसकी मानसिक दासता और मनुवादी मानसिकता से मुक्त नहीं किया जाएगा तब तक शोषित वर्ग को समतामूलक और शोषणमुक्त समाज के निर्माण हेतु संगठित नहीं किया जा सकता तथा तब तक मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग शोषित वर्ग का अपने स्वार्थों हेतु उपयोग करता रहेगा।
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सन्दर्भ और टिप्पणियां
1.       जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड- 1, पंचम संस्करण 2013, पृष्ठ- 70, प्रकाशक- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार।
2.       जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड- 1, पंचम संस्करण 2013, पृष्ठ- 70-71, प्रकाशक- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार।
3.       जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड- 1, पंचम संस्करण 2013, पृष्ठ- 71, प्रकाशक- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार।
4.       जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड- 1, पंचम संस्करण 2013, पृष्ठ- 71-72, प्रकाशक- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार।
5.       जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड- 1, पंचम संस्करण 2013, पृष्ठ- 76, प्रकाशक- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार।
6.       जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड- 1, पंचम संस्करण 2013, पृष्ठ- 77-78, प्रकाशक- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार।