Sunday, February 17, 2019

मूल कारण जाति व्यवस्था का उन्मूलन करो!

            तथाकथित बुद्धिजीवियों, मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया के दलालों अर्थात तथाकथित पत्रकारों, मनुवादी राजनीतिज्ञों, तथाकथित साम्यवादियों और तथाकथित समाज सुधारकों को प्रायः ही यह कहते सुना जाता है कि "जनता निर्धनता, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि समस्याओं से त्रस्त है लेकिन जब राजनीतिक चुनाव आते हैं तो वो विभिन्न जातियों में बंट जाती है जिससे जनता संगठित होकर अपने शोषण के विरुद्ध संघर्ष नहीं कर पाती, किसान और मजदूर राजनीतिक चुनावों के समय विभिन्न जातियों में बंट जाते हैं!"
             यहां मुख्यतः दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं:-
(1) क्या जनता केवल राजनीतिक चुनावों के समय ही विभिन्न जातियों में बंटती है और राजनीतिक चुनावों से पहले तथा बाद में जनता 'जाति' नामक शब्द से अपरिचित रहती है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो क्या राजनीतिक चुनावों के पहले और बाद में जाति व्यवस्था का अस्तित्व नहीं रहता है?
(2) तथाकथित बुद्धिजीवियों, मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया के दलालों अर्थात तथाकथित पत्रकारों, मनुवादी राजनीतिज्ञों, तथाकथित साम्यवादियों और तथाकथित समाज सुधारकों द्वारा उपरोक्त कथनों को कहने के पीछे वास्तविक उद्देश्य क्या है?
            अब हम पहले प्रश्न पर विचार करते हैं। जैसा कि हम जानते हैं भारत में ब्रिटिश शासन की समाप्ति के पश्चात भारतीय संविधान लागु हुआ। तत्पश्चात ही भारत में लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के चुनाव होना आरम्भ हुए। जबकि वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का अस्तित्व हजारों वर्षों से है और आज भी है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जाति और जाति व्यवस्था का अस्तित्व राजनीतिक चुनावों के आरम्भ होने से पहले भी था और वर्तमान में भी राजनीतिक चुनावों से पहले, मध्य में और पश्चात भी रहता है। अर्थात जनता 'जाति' नामक संस्था से राजनीतिक चुनावों के पूर्व और पश्चात में भी परिचित रहती है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जनता राजनीतिक चुनावों के पहले और बाद में भी विभिन्न जातियों में बंटी रहती है ऐसा राजनीतिक चुनावों के किसी विशेष प्रभाव के फलस्वरूप नहीं होता है, बल्कि जाति व्यवस्था के कारण होता है। इस प्रकार तथाकथित बुद्धिजीवियों, मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया के दलालों अर्थात तथाकथित पत्रकारों, मनुवादी राजनीतिज्ञों, तथाकथित साम्यवादियों और तथाकथित समाज सुधारकों का उपरोक्त कथन सत्य नहीं है।
           अब दूसरे प्रश्न कि तथाकथित बुद्धिजीवियों, मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया के दलालों अर्थात तथाकथित पत्रकारों, मनुवादी राजनीतिज्ञों, तथाकथित साम्यवादियों और तथाकथित समाज सुधारकों द्वारा उपरोक्त कथनों को कहने के पीछे वास्तविक उद्देश्य क्या है, पर विचार किया जाए। एक क्षण को यदि उपरोक्त कथन को सत्य मान भी लिया जाए कि जनता राजनीतिक चुनावों के समय विभिन्न जातियों में बंट जाती है तो कोई भी सामान्य विवेक का निष्कपट व्यक्ति इसके समाधन हेतु तत्काल कहेगा कि यदि जनता राजनीतिक चुनावों के समय विभिन्न जातियों में बंट जाती है तो फिर हमको उनको जोड़ने का गम्भीर प्रयत्न करने की आवश्यकता है! जब विभिन्न जातियों में बंटे हुए लोगों को जोड़ने की बात उठती है तो बात आती है इस विभाजन के मूल कारण 'जाति व्यवस्था' की। इस प्रकार विभिन्न जातियों में बंटे हुए लोगों को जोड़ने के लिये जाति व्यवस्था का उन्मूलन करने की आवश्यकता है। परन्तु तथाकथित बुद्धिजीवियों, मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया के दलालों अर्थात तथाकथित पत्रकारों, मनुवादी राजनीतिज्ञों, तथाकथित साम्यवादियों और तथाकथित समाज सुधारकों द्वारा होने वाले इस पूरे 'विलाप' में 'जाति व्यवस्था का उन्मूलन' करने का विषय 'विलुप्त' रहता है।
            इससे ही यह शंका होने लगती है कि तथाकथित बुद्धिजीवियों, मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया के तथाकथित पत्रकारों, मनुवादी राजनीतिज्ञों, तथाकथित साम्यवादियों और तथाकथित समाज सुधारकों द्वारा उपरोक्त कथनों को कहने के पीछे अन्य उद्देश्य छिपे हुए हैं।
           तथाकथित बुद्धिजीवियों, मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया के तथाकथित पत्रकारों, मनुवादी राजनीतिज्ञों, तथाकथित साम्यवादियों और तथाकथित समाज सुधारकों द्वारा 'जाति व्यवस्था' के उन्मूलन हेतु तो एक भी शब्द नहीं बोला जाता है लेकिन तथाकथित 'जातिवाद' को ये लोग पानी पी-पीकर कोसते रहते हैं और इसे समाज की तथाकथित एकता के लिए अत्यधिक हानिकारक घोषित करते हैं। इसीलिए 'जातिवाद' को समझना और इस बात को भी समझना कि केवल जातिवाद को ही हानिकारक क्यों बताया जाता है, आवश्यक हो जाता है।
            'जातिवाद' को सामान्य रूप से इस प्रकार परिभाषित किया जाता है:-
"यदि एक जाति के सदस्य बिना किसी अन्य कारण के केवल जातिगत लगाव से प्रेरित होकर अपनी जाति के लोगों के पक्ष में कार्य करते हैं, भले ही इस कारण अन्य जातियों के न्यायोचित हितों को हानि पहुँचती हो। तो इस प्रवृत्ति को ही 'जातिवाद' कहा जाता है।"
             इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जातिवाद कोई निरपेक्ष धारणा नहीं है बल्कि 'जातिवाद' के लिए 'जाति' का अस्तित्व होना आवश्यक है तथा 'जाति' का अस्तित्व होने के लिए 'जाति व्यवस्था' का अस्तित्व होना आवश्यक है। अर्थात जब समाज में 'जाति व्यवस्था' का अस्तित्व होगा तभी 'जातिवाद' का जन्म होगा। दूसरे शब्दों में जातिवाद को पनपने के लिए जाति व्यवस्था की भूमि आवश्यक है। यही कारण है कि जिन समाजों में जाति व्यवस्था का अस्तित्व नहीं है वहां जातिवाद का अस्तित्व भी नहीं है।
             यदि हम थोड़ा भी अन्वेषण करेंगे तो यह जानेंगे कि आजकल प्रचलित जातिवाद शब्द 1990 के बाद ही प्रमुखता से चर्चा में आया है। 1990 से पहले किसी ने जातिवाद शब्द को गंभीरता से नहीं लिया था। तब कुकुरमुत्तों की तरह से उगे हुए तथाकथित समाज के ठेकेदारों को जातिवाद की कोई सुध नहीं थी। परंतु 1990 के बाद भारतीय राजनीति, तथाकथित साम्यवादियों और तथाकथित बुद्धिजीवियों के बीच 'जातिवाद' शब्द अत्यधिक प्रचलित हो गया तथा जातिवाद की बुराई करना (लेकिन जाति व्यवस्था पर चुप्पी साधे रहना) प्रगतिशीलता की निशानी बन गया। इसका कारण यह है कि 1990 तक भारतीय राजनीति में तथाकथित उच्च जातियों का ही वर्चस्व था। परन्तु उसके बाद ऐसे राजनीतिक दलों के उभरने से, जिनमें से अधिकाँशतः समाज की तथाकथित निम्न जातियों द्वारा ही गठित थे और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़ी जातियों के राजनीति में सक्रिय होने के कारण इस वर्चस्व को कुछ ठेस पहुंची है।
            यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत में शोषित वर्ग के अधिकांश सदस्य अनुसूचित जातियों से हैं। इसके साथ ही अनुसूचित जातियों के अतिरिक्त शोषित वर्ग में अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जनजातियां और निर्धन धार्मिक अल्पसंख्यक भी सम्मिलित हैं। इन्ही लोगों के बीच ही ऐसे अधिकांश राजनीतिक दलों का जनाधार है, जिनका नेतृत्व तथाकथित निम्न जातियां कर रही हैं। इसी कारण तथाकथित उच्च जातियों द्वारा इन दलों को 'जातिवादी' कहकर इनकी आलोचना की गयी और दुष्प्रचार किया गया कि ये तथाकथित निम्न जातियों के नेतृत्व वाले राजनीतिक दल जाति के आधार पर राजनीति करके जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं।
              बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के संघर्षों के फलस्वरूप शोषित जातियों को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हुए लेकिन शोषित जातियों को राजनीतिक रूप से सक्रिय होने में कुछ विलम्ब हुआ। पहले शोषित जातियों के अधिकांश मतदाता अपने मत कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, तथाकथित साम्यवादी दलों आदि अन्य मनुवादी-पूंजीवादी दलों को देते थे। परन्तु इन दलों ने शोषित जातियों को केवल धोखा ही दिया और उनके हित में कोई कार्य नहीं किया। यह सब तीन मुख्य कारणों से हुआ:-
(1) शोषित जातियों में जागरूकता और अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिये पर्याप्त चेतना नहीं थी जिस कारण वे मनुवादी-पूंजीवादी राजनीतिक दलों के प्रचार से प्रभावित हो जाते थे।
(2) शोषित जातियों के ही कुछ 'टुकड़खोर' लोग जो विभिन्न मनुवादी-पूंजीवादी दलों में मनुवादियों के तलवे चाटते रहते हैं, वे ही लोग व्यक्तिगत लाभ के बदले शोषित जातियों के अधिकांश मतों को इन मनुवादी-पूंजीवादी राजनीतिक दलों को दिलवा देते थे।
(3) मनुवादी-पूंजीवादी राजनीतिक दलों के अतिरिक्त शोषित जातियों के पास कोई अन्य विकल्प ही नहीं था जिन्हें वो अपने मत देते।
            शोषित जातियों के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों के उद्भव के कारण भारतीय राजनीति एक नयी दिशा की ओर उन्मुख हुयी। अब शोषित जातियों के लोगों के अधिकांश मत मनुवादी-पूंजीवादी राजनीतिक दलों को ना मिलकर इन्ही राजनीतिक दलों को मिलने लगे। इस कारण कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, तथाकथित साम्यवादी दलों आदि मनुवादी-पूंजीवादी राजनीतिक दलों और इस कारण मनुवादी वर्ग के स्वार्थों को अत्यधिक हानि होने लगी। यह एक प्रकार से मनुवादी व्यवस्था पर भी गहरा आघात था। इसलिए विभिन्न क्षेत्रों में स्थित मनुवादी तत्व इस नयी प्रवृत्ति के विरोध में सक्रिय हो गए और चारों ओर 'जातिवाद' का शोर सुनाई देने लगा। आज जातिवाद के विरोध का सम्पूर्ण चिंतन इन्हीं शोषित जातियों के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों की राजनीति के विरोध पर टिका हुआ है। मनुवादी तथाकथित बुद्धिजीवी, तथाकथित साम्यवादी और मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों द्वारा अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों की प्रमुखता वाले दलों को ही अपने मत देने का  'जातिवाद' के नाम पर विरोध करते हैं। परन्तु जब तथाकथित उच्च जातियों के लोग तथाकथित उच्च जातियों के लोगों को ही मत देते हैं, तब ये मनुवादी तथाकथित बुद्धिजीवी, तथाकथित साम्यवादी और मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया चुप्पी साध लेते हैं।
            इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गं द्वारा अपने अधिकारों की प्राप्ति और शोषण के उन्मूलन हेतु संगठित होकर संघर्ष करने को 'जातिवाद' का नाम दिया जाता है परन्तु तथाकथित उच्च जातियों द्वारा जाति के नाम पर अपनी जाति के लोगों का पक्ष पोषण करने को 'जातिवाद' नहीं कहा जाता है। सच्चाई यह है कि तथाकथित उच्च जातियों के लोग शोषित जातियों के मतों से ही चुनाव जीतते हैं लेकिन अपनी ही जाति के लोगों का पक्ष पोषण करते हैं। मनुवादी मानसिकता से ग्रस्त होने के कारण तथाकथित उच्च जाति का कोई भी सदस्य अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के लोगों को मत नहीं देता। लेकिन इसको मनुवादी लोग जातिवाद नहीं कहते। इस प्रकार मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग जातिवाद को कपटपूर्वक परिभाषित करते हुए शोषित जातियों को राजनीतिक रूप से संगठित होने से रोकने का षड़यंत्र रच रहा है।
            जातिवाद-जातिवाद चिल्ला कर मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग जाति व्यवस्था का उन्मूलन करने की तरफ से शोषित जातियों का ध्यान हटाना चाहता है। इस तरह मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग वर्तमान मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को चिरस्थायी बनाए रखना चाहता है। मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग जातिवाद के शोर में जाति व्यवस्था के प्रति शोषित जातियों के आक्रोश को जातिवाद के विवाद की ओर मोड़कर जाति व्यवस्था को बचाये रखने का प्रयास कर रहा है। आज मनुवादी, तथाकथित बुद्धिजीवी, तथाकथित साम्यवादी, मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया 'जातिवाद' के विरुद्ध तो लम्बी-लम्बी बहसें करते हैं लेकिन 'जाति व्यवस्था' के उन्मूलन की बात आते ही चुप्पी साध लेते हैं। उनकी यह चुप्पी ही उनकी पोल खोल देती है।
             वास्तव में मुख्य समस्या जाति व्यवस्था है। जब तक 'जाति व्यवस्था' का उन्मूलन नहीं किया जाएगा तब तक 'जातिवाद' को समाप्त करने की बातें करना केवल बकवास ही है। मनुवादी वर्ग ही 'जाति व्यवस्था' और 'जातिवाद' का जनक है और वही इनसे लाभान्वित भी हो रहा है। जब 'जाति व्यवस्था' का उन्मूलन किया जाएगा तब ना ही 'जाति' रहेगी, ना ही 'जातिवाद' रहेगा और ना ही लोगों के बीच जातिगत विभाजन रहेगा।
            इस प्रकार तथाकथित बुद्धिजीवियों, मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया के दलालों अर्थात तथाकथित पत्रकारों, मनुवादी राजनीतिज्ञों, तथाकथित साम्यवादियों और तथाकथित समाज सुधारकों द्वारा यह कहना कि "जनता निर्धनता, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि समस्याओं से त्रस्त है लेकिन जब राजनीतिक चुनाव आते हैं तो वो विभिन्न जातियों में बंट जाते हैं जिससे जनता संगठित होकर अपने शोषण के विरुद्ध संघर्ष नहीं कर पाती तथा किसान और मजदूर राजनीतिक चुनावों के समय विभिन्न जातियों में बंट जाते हैं!" जबकि इस विभाजन के पीछे के मूल कारण जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रश्न पर चुप्पी साध लेना, यह दिखाता है कि इन कथनों को कहने का वास्तविक उद्देश्य यह है कि शोषित जातियों के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों के उदय से पूर्व जिस तरह शोषित जातियां राजनीतिक चुनावों में अज्ञानतावश और विवशतावश अपने मत विभिन्न मनुवादी राजनीतिक दलों को दे देती थीं तथा मनुवादी लोग शोषित जातियों के इन मतों की बन्दरबांट करके सत्ता का भोग करते थे, वही स्थिति पुनः वापस लौट आये। इसी कारण मनुवादी वर्ग के उपरोक्त विभिन्न घटक शोषित जातियों के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों को जातिवादी कहकर दुष्प्रचारित करते हैं जिससे शोषित जातियां भ्रमित होकर राजनीतिक चुनावों में अपने मत इन मनुवादी और उनके सगे भाई तथाकथित साम्यवादी राजनीतिक दलों को दे दें।
             इसी कारण ये मनुवादी घटक कपटपूर्ण ढंग से 'जातिवाद' की बुराई करते हैं और अपने घोर जातिवाद को तथाकथित 'राष्ट्रवाद' और 'विकास' के मुखौटे में छिपाते हैं। ये मनुवादी लोग अपने जातिवादी कार्यों को राष्ट्रवाद, विकास और योग्यता कहते हैं जबकि शोषित जातियों द्वारा समतामूलक और शोषणमुक्त समाज हेतु किये जा रहे संघर्ष को जातिवादी कहते हैं।
            बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने इन ढोंगी राष्ट्रवादियों की पोल खोलते हुए कहा है कि:-
"भारत एक विलक्षण देश है। उसके राष्ट्रवादी और देशभक्त लोग विलक्षण हैं। भारत में देशभक्त और राष्ट्रवादी वह माना जाता है, जो अपने बन्धुओं के साथ अमानुषिक व्यवहार होता देख सके और उसकी मानवीयता विरोध में न खड़ी हो। वह जानता है कि पुरूष और स्त्रियों को अकारण ही उनके मानव अधिकारों से वंचित रखा जाता है, लेकिन उसका नागरिकता बोध उसे किसी उपयोगी कार्य के लिये नहीं उकसाता। वह देखता है कि एक पूरे वर्ग के लिये लोक नियोजन के द्वार बन्द हैं। लेकिन यह देखकर भी उसका न्याय और ईमानदारी का बोध नहीं जगता। वह देखता है कि ऐसे सैकड़ों कुरीतियां समाज में प्रचलित हैं, जो मनुष्य और समाज को क्षति पंहुचाते हैं, लेकिन उसमें जुगुप्सा का भाव उत्पन्न नहीं होता।"1
            जबकि शोषित जातियों द्वारा किये जा रहे संघर्ष के स्वरूप का उल्लेख करते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि:-
"मेरा सम्बन्ध उस वर्ग से है, जिसका लोकतंत्र के प्रति एक सुस्पष्ट दृष्टिकोण है और जो एकाधिकार को सभी आकार और रूपों में समूल नष्ट करने के लिये कृतसंकल्प है। हमारा लक्ष्य जीवन के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सभी क्षेत्रों में एक व्यक्ति-एक मूल्य (One Man-One Value) के आदर्श को साकार करना है।"2
             इसीलिये बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने वास्तविक लोकतंत्र को परिभाषित भी किया है:-
"लोकतंत्र का सार 'एक व्यक्ति-एक मूल्य (One Man-One Value)' के सिद्धान्त में निहित है। खेद है कि लोकतंत्र में 'एक व्यक्ति-एक मत (One Man-One Vote)' का नियम अपना कर, जहाँ तक राजनैतिक ढांचे का सम्बन्ध है केवल वहीँ तक इस सिद्धांत को लागू करने का प्रयास किया गया है। जबकि 'एक व्यक्ति-एक मत' के नियम को 'एक व्यक्ति-एक मूल्य' के सिद्धांत में यथार्थ रूप से परिवर्तित किया जाना चाहिये था।"3
            इस प्रकार मनुवादियों की चिकनी-चुपड़ी बातों जिसे राष्ट्रवाद, देशभक्ति, तथाकथित एकता, विकास आदि के आवरण में लपेटकर प्रस्तुत किया जाता है, से शोषित  वर्ग को सावधान रहने और उनका सैद्धांतिक तथा तथ्यात्मक विश्लेषण करने की आवश्यकता है। इसी तरह से मनुवादियों के षड़यन्त्रों को विफल करके शोषित वर्ग समतामूलक और शोषणमुक्त समाज का निर्माण करने में सफल हो सकेगा!
                                         ----------- मैत्रेय
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सन्दर्भ और टिप्पणियाँ
1.बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वांङमय, खण्ड-5, चौथा संस्करण- 2013, पृष्ठ-123, प्रकाशक:- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली
और,
Dr. Baba Saheb Ambedkar Writings And Speeches, Volume 2, Second Edition- 2005, Page- 598-599, Publisher:- Higher and Technical Education Department, Government of Maharashtra.
2.बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वांङमय, खण्ड-5, चौथा संस्करण- 2013, पृष्ठ-123, प्रकाशक:- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली
और,
Dr. Baba Saheb Ambedkar Writings And Speeches, Volume 2, Second Edition- 2005, Page- 599, Publisher:- Higher and Technical Education Department, Government of Maharashtra.
3.राज्य और अल्पसंख्यक, बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 38.

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