Thursday, February 14, 2019

मार्क्सवाद और जाति का उन्मूलन

             जाति उन्मूलन का प्रश्न भारत के तथाकथित मार्क्सवादियों-साम्यवादियों के लिये उनके गले की फांस बना हुआ है। भारत के तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी जितना ही कुतर्क करके इस प्रश्न से दूर भागने का प्रयत्न करते हैं उतना ही ये प्रश्न बार-बार उनके सामने आकर खड़ा हो जाता है। तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी दावा करते हैं कि 'बहुप्रतीक्षित' तथाकथित साम्यवादी क्रान्ति के पश्चात 'जादू' से स्वयं ही जाति व्यवस्था का उन्मूलन हो जाएगा। क्या ऐसा सम्भव है? इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
             सर्वप्रथम हम वैज्ञानिक समाजवाद या मार्क्सवाद के जनक महान क्रान्तिकारी दार्शनिक कार्ल मार्क्स द्वारा जाति व्यवस्था पर व्यक्त किये गए विचारों का विश्लेषण करेंगे।
             मार्क्स ने जाति व्यवस्था पर प्रमुखता से विचार व्यक्त नहीं किये हैं बल्कि मार्क्स की कृतियों में जाति व्यवस्था से सम्बंधित टिप्पणियां यत्र-तत्र बिखरी हुई हैं। इन्ही टिप्पणियों के आधार पर जाति व्यवस्था के विषय में मार्क्स के विचारों का पता चलता है।
             जर्मन विचारधारा (The German Ideology) में मार्क्स ने कहा है कि:-
"जब श्रम विभाजन का अपरिष्कृत रूप जो भारत और मिस्र में पाया जाता है उनके राज्य और धर्म में जाति व्यवस्था को जन्म देता है तो इतिहासकार मानते हैं कि जाति व्यवस्था वह शक्ति है जिसने इस अपरिष्कृत सामाजिक रूप को जन्म दिया है।"1
            दिसम्बर 1846 में रूसी बुद्धिजीवी अन्नाकोव को लिखे पत्र में मार्क्स ने लिखा:-
"क्या जाति व्यवस्था भी श्रम का एक विशिष्ट विभाजन नहीं थी? क्या समाहारों (Corporations) की व्यवस्था एक और श्रम विभाजन नहीं थी? और क्या विनिर्माण की उस व्यवस्था में मौजूद श्रम विभाजन भी, जिसका आरम्भ इंग्लैंड में 17वीं सदी के लगभग मध्य में हुआ और जो 18वीं सदी के अन्तिम भाग में अपनी समाप्ति को पहुंची, बड़े पैमाने के आधुनिक उद्योग में मौजूद श्रम विभाजन से पूरी तरह भिन्न नहीं है?"2
            1847 में लिखित दर्शन की दरिद्रता (The Poverty of Philosophy) में मार्क्स ने लिखा है:-
"श्रम विभाजन ने जातियों को जन्म दिया।"3
            इसी पुस्तक के अन्य स्थान पर मार्क्स लिखते हैं:-
"पितृसत्तात्मक व्यवस्था में, जाति व्यवस्था में, सामन्ती और गिल्ड व्यवस्था में पूरे समाज में निश्चित नियमों के अनुसार श्रम विभाजन था। क्या ये नियम किसी विधायिका द्वारा बनाये गए थे? नहीं। मूल रूप से भौतिक उत्पादन की स्थितियों से उनका जन्म हुआ था और उन्हें बहुत बाद में कानून का दर्जा दिया गया। इस तरह ये अलग-अलग प्रकार के श्रम विभाजन सामाजिक संगठन के तरह-तरह के आधार बन गए।"4
            1853 में लिखित लेख 'भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम (The Future Results Of The British Rule In India)' में मार्क्स ने लिखा है:-
"रेल व्यवस्था से उत्पन्न होने वाले आधुनिक उद्योग-धंधे उस अनुवांशिक (पुश्तैनी) श्रम-विभाजन को भंग कर देंगे जिस पर भारत की तरक्की और उसकी ताकत के बढ़ने के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट- भारत की जाति व्यवस्था- टिकी हुई है।"5
            इसी लेख के अगले पैराग्राफ में मार्क्स लिखते हैं:-
"अंग्रेज पूंजीपति वर्ग विवश होकर चाहे जो कुछ करे, उससे न तो भारत की आम जनता को मुक्ति मिलेगी, न उसकी सामाजिक स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार होगा, क्योंकि ये केवल इस बात पर नहीं निर्भर करतीं हैं कि उत्पादक शक्तियों का विकास हो, बल्कि इस बात पर निर्भर करती हैं कि उन शक्तियों पर जनता का स्वामित्व हो। किन्तु इन दोनों के लिये भौतिक आधार तैयार करने के काम से वे (अंग्रेज पूंजीपति) नहीं बच सकेंगे।"6
           1859 में लिखित 'राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान (A Contribution to the Critique of Political Economy)' में मार्क्स जाति के विषय में लिखते हैं:-
"या तो कानून भू-स्वामित्व को किन्हीं विशेष परिवारों तक सीमित कर सकता है या फिर श्रम को आनुवंशिक विशेषाधिकार घोषित कर सकता है और इस तरह उसे जाति व्यवस्था के रूप में सुदृढ़ीकृत कर सकता है।"7
            1867 में प्रकाशित 'पूंजी (Capital)' के प्रथम खण्ड में जातियों पर टिप्पणी करते हुए मार्क्स कहते हैं:-
"हस्तनिर्माण (Manufacture), असल में, तफसीली काम करने वाले मजदूर की निपुणता को इस तरह पैदा करता है कि विभिन्न धंधों में जो भेद हस्तनिर्माण के पहले ही पैदा हो गए थे और जो उसे समाज में पहले से तैयार मिले थे, उनको वह वर्कशॉप के भीतर पुनः पैदा कर देता है और सुनियोजित ढंग से विकसित करता हुआ पराकाष्ठा पर पहुंचा देता है। दूसरी ओर, एक आंशिक कार्य का किसी एक व्यक्ति के पूरे जीवन के लिए उसका धन्धा बन जाना पुराने जमाने की समाज व्यवस्थाओं की धंधों को पुश्तैनी (आनुवांशिक) बना देने की प्रवृत्ति के अनुरूप होता है, जो या तो उनको अलग-अलग जातियों का रुप दे देती थीं और या जहां कहीं कुछ खास ऐतिहासिक परिस्थितियां व्यक्ति में अपना धंधा इस तरह बदलने की प्रवृत्ति पैदा कर देती थीं, जो जाति व्यवस्था के अनुरूप नहीं होता था, वहां उनको शिल्पी संघों में बांध देती थी। जिस प्राकृतिक नियम के अनुसार वनस्पतियों और पशुओं का विभिन्न जातियों और प्रकारों में विभेदककरण हो जाता है, उसी प्राकृतिक नियम के फलस्वरूप अलग-अलग जातियां और शिल्पी संघ पैदा हो जाते हैं। अन्तर केवल यह होता है कि जब उनका विकास एक खास मंजिल पर पहुंच जाता है, तो जातियों का पैतृक स्वरूप और शिल्पी संघों का अनन्य रूप समाज के एक कानून के रूप में स्थापित हो जाता है।"8
            क्योंकि जाति व्यवस्था मार्क्स के अध्ययन का मुख्य विषय नहीं था इसलिए मार्क्स ने जाति व्यवस्था पर अधिक विस्तार से विचार व्यक्त नहीं किये हैं। परन्तु उपरोक्त टिप्पणियों से ही जाति व्यवस्था के विषय में मार्क्स के विचारों का सार सामने आता है:-
(1) मार्क्स के अनुसार जाति व्यवस्था की उत्पत्ति का स्रोत श्रम विभाजन है।
(2) मार्क्स के अनुसार इस श्रम विभाजन की विशेषता इसके स्वरूप का आनुवंशिक होना है अर्थात पेशों को पुश्तैनी बना देना।
(3) मार्क्स के अनुसार भारत में ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप होने वाले पूंजीवादी विकास विशेष रूप से रेल व्यवस्था के कारण आनुवंशिक श्रम विभाजन समाप्त हो जाएगा। अब क्योंकि मार्क्स ने आनुवंशिक श्रम विभाजन को ही जाति व्यवस्था की उत्पत्ति का स्रोत माना है फलस्वरूप आनुवंशिक श्रम विभाजन के समाप्त होने के परिणामस्वरूप जाति व्यवस्था का भी उन्मूलन हो जाएगा।
(4) भारत में ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप होने वाले पूंजीवादी विकास के कारण जाति व्यवस्था का उन्मूलन तो हो जाएगा परन्तु आम जनता की मुक्ति नहीं होगी और उनका पूंजीवादी व्यवस्था के कारण शोषण होता रहेगा जब तक कि क्रान्ति द्वारा उत्पादक शक्तियों पर आम जनता का अधिकार न हो जाये।
(5) मार्क्स ने जाति व्यवस्था की अनिवार्य विशेषताओं 'श्रेणीगत असमानता (Graded Inequality)' और 'अस्पृश्यता (Untouchability)' पर विचार ही नहीं किया। क्योंकि मार्क्स का भारतीय समाज से प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं था इसलिए जाति व्यवस्था की इन विशेषताओं को देखने में मार्क्स असफल रहे।
             इस प्रकार स्पष्ट है कि मार्क्स के अनुसार जाति व्यवस्था के उन्मूलन हेतु किसी वर्ग संघर्ष और तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी क्रान्ति की आवश्यकता ही नहीं है।
             मार्क्स ने जाति व्यवस्था को श्रम विभाजन का रूप माना परन्तु वास्तव में जाति व्यवस्था ‘श्रमिकों का भी श्रेणीगत विभाजन’ कर देती है। इसी का उल्लेख करते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि:-
"यदि श्रम का विभाजन प्रत्येक सभ्य समाज का एक अनिवार्य लक्षण है तो यह दलील दी जाती है कि जाति प्रथा में कोई बुराई नहीं है। इस विचार के विरुद्ध पहली बात यह है कि जाति प्रथा केवल श्रम का विभाजन नहीं है, श्रमिकों का विभाजन भी है। इसमें संदेह नहीं है कि सभ्य समाज को श्रम का विभाजन करने की आवश्यकता है। किसी भी सभ्य समाज में श्रम के विभाजन के साथ इस प्रकार के पूर्णतः अलग वर्गों में श्रमिकों का अप्राकृतिक विभाजन नहीं होता। जाति प्रथा मात्र श्रमिकों का विभाजन नहीं है, बल्कि यह श्रम के विभाजन से बिल्कुल भिन्न है। यह एक श्रेणीबद्ध व्यवस्था है, जिसमें श्रमिकों का विभाजन एक के ऊपर दूसरे क्रम में होता है। किसी भी अन्य देश में श्रम के विभाजन के साथ श्रमिकों का इस प्रकार का क्रम नहीं होता। जाति प्रथा के विचार के विरुद्ध एक तीसरा तथ्य भी है। श्रम का यह विभाजन स्वतः नहीं होता। यह स्वाभाविक अभिरुचि पर आधारित नहीं है।"9
             यहां यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि जातिगत पेशों या पुश्तैनी या आनुवांशिक श्रम विभाजन को भारत के संविधान द्वारा 26 जनवरी 1950 को ही समाप्त कर दिया गया है। अब किसी भी व्यक्ति को उसकी जाति के अनुसार ही व्यवसाय अपनाने की अनिवार्यता नहीं है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (g) के द्वारा भारत के सभी नागरिकों को कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या व्यवसाय करने की स्वतंत्रता दी गयी है, लेकिन इसी के साथ राज्य को भी यह अधिकार दिया गया है कि वह साधारण जनता के हितों के संरक्षण के लिए इस स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकती है या इस स्वतंत्रता के सम्बंध में आवश्यक योग्यता विहित कर सकती है। उदरहणार्थ- किसी व्यक्ति को विधि व्यवसाय करने के लिये यह प्रतिबंध लगाया जा सकता है कि उसके पास विधि स्नातक की उपाधि हो।
            अतः मार्क्स जिस आनुवंशिक श्रम विभाजन को जाति व्यवस्था की उत्पत्ति का कारण मानते थे वह आनुवंशिक श्रम विभाजन तो भारत के संविधान द्वारा समाप्त किया जा चुका है। परन्तु जाति व्यवस्था अभी भी विद्यमान है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था आनुवंशिक श्रम विभाजन से बढ़कर है और क्योंकि ये केवल आनुवंशिक श्रम विभाजन ही नहीं है इसीलिए आनुवंशिक श्रम विभाजन की समाप्ति पर भी जाति व्यवस्था का उन्मूलन नहीं हुआ। क्योंकि जाति व्यवस्था श्रम के विभाजन के साथ-साथ श्रमिकों का भी श्रेणीगत विभाजन है और क्योंकि श्रमिकों का यह श्रेणीगत विभाजन अभी भी बना हुआ है इसीलिए जाति व्यवस्था भी बनी हुई है।
            जाति के प्रश्न पर भारत के विभिन्न तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी गिरोहों के विचारों को सामान्य रूप से लिया जाए तो सभी गिरोह जाति उन्मूलन के प्रश्न को सुदूर भविष्य में सम्पन्न होने वाली तथाकथित साम्यवादी क्रान्ति जिसके द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था का अंत कर दिया जाएगा, तक के लिए टाल देते हैं और जब तक यह क्रान्ति सम्पन्न नहीं होती तब तक जाति के प्रश्न पर विचार करना भी उचित नहीं समझते। इस तरह स्पष्ट है कि तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी गिरोहों के अनुसार यदि क्रान्ति नहीं होगी तो जाति उन्मूलन भी सम्भव नहीं है।
            इन्ही तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी गिरोहों में एक गिरोह का जाति उन्मूलन का कार्यक्रम उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत है-
"क्रान्ति द्वारा बुर्जुआ राज्यसत्ता (पूंजीवादी व्यवस्था) का ध्वंस करते ही सर्वहारा सत्ता सभी देशी-विदेशी छोटे-बड़े उद्योगों और बैंकों को जब्त करके उनका राजकीयकरण कर देगी जिसका प्रबन्धन पार्टी (साम्यवादी) के नेतृत्व में मजदूरों-तकनीशियनों की चुनी हुई कमेटियां संभालेंगी। कारखानों में बहुविध प्रशिक्षण के सहारे लचीला और गतिमान श्रम विभाजन होगा, जिसमें सभी के जिम्मे (तकनीकी विशेषज्ञता के कामों को छोड़कर) सभी काम आएंगे और इस तरह 'ऊंच-नीच' और 'स्वच्छ-अस्वच्छ' कामों का भेद मिटता चला जायेगा। मशीनीकरण और ड्रेनेज-सीवरेज ट्रीटमेंट प्लाण्ट्स की नियोजित राजकीय व्यवस्था भी 'अस्वच्छ' कामों की श्रेणी का स्वरुप बदल डालेगी (स्पष्ट है कि ये अस्वच्छ काम शोषित जातियों के मत्थे ही मढ़े जाएंगे!) फिर बढ़ती समाजवादी चेतना भी लोगों के भीतर से इस भेद के संस्कार को खत्म करेगी, जिससे लचीले श्रम विभाजन में काम बांटते हुए दबाव की आवश्यकता कम पड़ेगी और यदि थोड़े से लोगों पर दबाव भी डालना पड़े तो यह न्यायसंगत है। (स्पष्ट है कि यह दबाव शोषित जातियों पर ही डाला जाएगा!-लेखक की टिप्पणी)
शेयर बाजार तत्काल बन्द हो जाएंगे। व्यापार क्षेत्र का राजकीयकरण होने से विनिमय पर जनता की सत्ता का नियंत्रण कायम हो जाएगा। इससे जमाखोरी-मुनाफाखोरी-दलाली तो समाप्त होगी ही, खानदानी पेशों की रूढ़ व्यवस्था टूटने से जाति प्रथा पर प्रभाव पड़ेगा।......
इससे प्रेम विवाहों और अंतर्जातीय विवाहों (Inter-caste Marriage) का चलन प्रधान हो जाएगा और जाति की दीवारें भरभराकर गिरने लगेंगी।... (यह उपाय तो मार्क्स ने कभी दिया ही नहीं! -लेखक की टिप्पणी)
इस तरह समाजवाद उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ-साथ उत्पादन सम्बन्धों में भी लगातार बदलाव लाते हुए और उसके साथ-साथ, पूरा जोर देकर अधिरचना के क्षेत्र में भी सतत क्रान्ति चलाते हुए मूलाधार और अधिरचना से जाति व्यवस्था का समूल नाश कर देगा। समाजवादी संक्रमण की कम्युनिज्म तक की यात्रा तो काफी लंबी होगी, लेकिन जाति व्यवस्था का उन्मूलन तो समाजवादी समाज में कुछ दशकों का ही काम होगा।" (कुछ दशक? 100 दशक या 1000 दशक? -लेखक की टिप्पणी)
            इस तरह स्पष्ट है कि भारत के तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी महान क्रान्तिकारी दार्शनिक कार्ल मार्क्स के विचारों के सर्वथा विपरीत पहले तो यह कहते हैं कि जाति व्यवस्था का उन्मूलन तथाकथित साम्यवादी क्रान्ति के पश्चात ही होगा लेकिन फिर दूसरी तरफ कहते हैं कि इस तथाकथित साम्यवादी क्रान्ति के पश्चात भी जाति व्यवस्था का उन्मूलन तुरन्त नहीं होगा बल्कि उसमें 'कुछ' दशक लगेंगे। ये तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी जिस 'लचीले' श्रम विभाजन की बात करते हैं जिसमें सभी के जिम्मे सभी काम आएंगे, वह भी दिवास्वप्न ही है। क्योंकि मार्क्स ने स्वयं माना है कि क्रान्ति के बाद भी साम्यवादी समाज की पहली अवस्था में असमानता बनी रहेगी तथा साम्यवादी समाज की उच्चतर अवस्था में भी श्रम विभाजन बना रहेगा तथा केवल श्रम विभाजन के प्रति दासत्वपूर्ण अधीनता और उसी के साथ-साथ मानसिक तथा शारीरिक श्रम के अंतर्विरोध का लोप होगा।
             गोथा कार्यक्रम की आलोचना में मार्क्स कहते हैं कि:-
"लेकिन एक मनुष्य दूसरे से शारीरिक या मानसिक दृष्टि से श्रेष्ठतर है इसलिए इतने ही समय में अधिक श्रम प्रदान करता है, या वह अधिक समय तक श्रम कर सकता है, और माप का काम देने के लिए श्रम का निर्धारण उसकी अवधि या तीव्रता द्वारा किया जाना चाहिए, अन्यथा वह माप का मानक नहीं रहता। यह समान अधिकार असमान श्रम के लिए एक असमान अधिकार है। यह किन्ही भी वर्ग-भेदों को नहीं मानता, क्योंकि हर कोई हर किसी की तरह मात्र एक श्रमिक है; किन्तु यह असमान वैयक्तिक सामर्थ्य को, अतः उत्पादक कार्यक्षमता को प्राकृतिक विशेषाधिकारों के रूप में मौन स्वीकृति प्रदान करता है। इस प्रकार हर अधिकार की भांति यह अपने अंतर्य में असमानता का अधिकार है। अपने स्वभाव से ही अधिकार की सार्थकता समान मानक के लागू किये जाने में ही हो सकती है, किन्तु असमान व्यक्ति (और यदि वे असमान न हुए होते, तो वे अलग-अलग व्यक्ति न होते) एक समान मानक से केवल वहीं तक मापे जा सकते हैं, जहां तक कि उन्हें एक समान दृष्टिकोण में ले आया जाए, उन्हें केवल एक निश्चित पहलू से देखा जाए, उदाहरण के लिए, इस मामले में उन्हें केवल श्रमिक माना जाता है और उनमें कोई और बात नहीं देखी जाती, अन्य सभी बातों को नजरअंदाज कर दिया गया है। इसके अलावा, एक श्रमिक विवाहित है, तो दूसरा नहीं, एक के दूसरे से अधिक बच्चे हैं, आदि। इस प्रकार समान श्रम के निष्पादन और फलस्वरूप सामाजिक उपभोग-निधि में समान अंश से एक को वास्तव में दूसरे से अधिक प्राप्त होगा, एक दूसरे की अपेक्षा धनी होगा, आदि। इन सब दोषों से बचने के लिए अधिकार को समान के बजाय असमान रखना होगा।
             किन्तु साम्यवादी समाज की पहली अवस्था में इन दोषों का होना अनिवार्य है, क्योंकि यह वह समय है, जब पूंजीवादी समाज से दीर्घकालीन प्रसववेदना के बाद अभी-अभी उत्पन्न हुआ है। अधिकार कभी भी समाज के आर्थिक ढांचे और उसके द्वारा निर्धारित सांस्कृतिक विकास से ऊंचा नहीं हो सकता।
             साम्यवादी समाज की उच्चतर अवस्था में, व्यक्ति की श्रम विभाजन के प्रति दासत्वपूर्ण अधीनता और उसी के साथ-साथ मानसिक तथा शारीरिक श्रम के अंतर्विरोध का लोप हो जाने के बाद; श्रम के जीवन के मात्र एक साधन ही नहीं, प्रत्युत जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता बन चुकने के बाद; व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के साथ-साथ उत्पादक शक्तियों के भी बढ़ जाने और सामाजिक सम्पदा के सभी स्रोतों के अधिक वेग से प्रवाहमान होने के बाद- इनके बाद ही कहीं जाकर बुर्जुआ अधिकार के संकीर्ण क्षितिज को पूर्णतः लाँघा जा सकेगा और समाज अपनी पताका पर अंकित कर सकेगा: प्रत्येक से उसकी क्षमतानुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार!"10
             इस प्रकार मार्क्स के अनुसार साम्यवादी समाज की उच्चतर अवस्था में भी श्रम विभाजन बना रहेगा। जबकि मार्क्स के अनुसार आनुवांशिक श्रम विभाजन के उन्मूलन के साथ ही जाति व्यवस्था का भी उन्मूलन हो जाएगा लेकिन इसके लिये किसी साम्यवादी क्रान्ति की अनिवार्यता नहीं है। वर्तमान में संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार आनुवांशिक श्रम विभाजन को समाप्त किया जा चुका है परन्तु मार्क्स के विचारों के सर्वथा विपरीत जाति व्यवस्था आज भी अस्तित्वमान है। यदि केवल श्रम विभाजन को ही जाति व्यवस्था की उत्पत्ति का कारण माना जाए तो उपरोक्त उध्दरण से स्पष्ट ही है कि मार्क्स के अनुसार साम्यवादी समाज की उच्चतर अवस्था में भी श्रम विभाजन का उन्मूलन नहीं होगा। इस तरह इस बात की कोई सम्भावना नहीं है कि साम्यवादी समाज की उच्चतर अवस्था में जाति व्यवस्था का उन्मूलन हो जाएगा। इस तरह मार्क्स के विचारों द्वारा भले ही पूंजीवादी व्यवस्था का उन्मूलन सम्भव हो परन्तु जाति व्यवस्था का उन्मूलन सम्भव नहीं है।
            मार्क्स के विचारों की इसी कमी को भांप कर भारत के तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी लोग अंतर्जातीय विवाह (Inter-caste Marriage) का राग अलापने लगते हैं। परन्तु मनुवादी व्यवस्था पर प्रहार किए बिना अंतर्जातीय विवाह का राग अलापने की निरर्थकता को प्रकट करते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है:-
"अन्तर्जातीय भोज और अन्तर्जातीय विवाह न करने या समय-समय पर अन्तर्जातीय भोज और अन्तर्जातीय विवाहों का आयोजन न करने के लिये लोगों की आलोचना या उनका उपहास करना वांछित उद्देश्य को प्राप्त करने का एक निरर्थक तरीका है। वास्तविक उपचार यह है कि शास्त्रों से लोगों के विश्वास को समाप्त किया जाए। यदि शास्त्रों ने लोगों के धर्म, विश्वास और विचारों को ढालना जारी रखा तो आप कैसे सफल होंगे? शास्त्रों की सत्ता का विरोध किये बिना,  लोगों को उनकी पवित्रता और दण्ड विधान में विश्वास करने के लिये अनुमति देना और फिर उनके अविवेकी और अमानवीय कार्यों के लिये उन्हें दोष देना और उनकी आलोचना करना सामाजिक सुधार करने का अनुपयुक्त तरीका है।"11
             बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर कहते हैं कि:-
"अन्तर्जातीय भोज और अन्तर्जातीय विवाह के लिये आंदोलन करना और उनका आयोजन करना कृत्रिम साधनों से दिए जाने वाले बलपूर्वक भोजन कराने के समान है। प्रत्येक पुरुष और स्त्री को शास्त्रों के बंधन से मुक्त कराइये, शास्त्रों द्वारा प्रतिष्ठापित हानिकर धारणाओं से उनके मस्तिष्क का पिंड छुडाइये, फिर देखिए वह आपके कहे बिना अपने आप अन्तर्जातीय भोज और अन्तर्जातीय विवाह का आयोजन करेंगे।"12
             इस तरह जाति व्यवस्था के उन्मूलन में अंतर्जातीय विवाह तब ही सार्थक होंगे जब मनुवादी व्यवस्था का उन्मूलन किया जाएगा।
             अब थोड़ा इस दृष्टिकोण से भी विचार कर लिया जाए कि तथाकथित साम्यवादी क्रान्ति के तुरन्त बाद क्या होगा। तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी कहते हैं कि क्रान्ति द्वारा सत्ता पर अधिकार करने के पश्चात वे ऐसी राज्य-मशीनरी बनाएंगे जो शोषितों के हित में कार्य करेगी। परन्तु क्या यह नई राज्य मशीनरी जाति व्यवस्था का भी उन्मूलन करने में सक्षम होगी। क्रान्ति द्वारा सत्ता पर अधिकार करने के पश्चात राज्य मशीनरी अर्थात प्रशासनिक और सैनिक कर्मचारी-अधिकारी तन्त्र के महत्व पर कार्ल मार्क्स ने कहा है कि:-
"मजदूर वर्ग बनी-बनाई राज्य मशीनरी पर केवल कब्जा करके उसे अपने उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता।"13
            कार्ल मार्क्स के सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्स ने राज्य मशीनरी के महत्व पर कहा है कि:-
"मजदूर वर्ग एक बार सत्ता पा लेने पर पुरानी राज्य मशीन से काम नहीं चला सकता; और यह कि अपनी सद्य प्राप्त प्रभुता को सुरक्षित रखने के लिए इस मजदूर वर्ग को एक ओर तो पुरानी दमनकारी मशीन को, जो पहले उसके खिलाफ इस्तेमाल की जाती थी, खत्म करना होगा और दूसरी ओर उसे अपने ही प्रतिनिधियों और अफसरों से अपनी रक्षा करने के लिए यह घोषित करना होगा कि उनमें से प्रत्येक, बिना अपवाद के, किसी भी क्षण हटाया जा सकेगा।"14
             इस तरह मार्क्स और एंगेल्स दोनों ने ही कहा है कि क्रान्ति के पश्चात मजदूर वर्ग को एक सर्वथा नई राज्य मशीनरी की आवश्यकता होती है जिसमें शोषक वर्ग से आये तत्व विद्यमान न हों। परन्तु क्या रूस में बोल्शेविकों द्वारा 1917 में की गई प्रथम साम्यवादी क्रान्ति अर्थात अक्टूबर क्रान्ति के पश्चात ऐसा सम्भव हो सका? अक्टूबर क्रान्ति के लगभग 5 वर्ष पश्चात अक्टूबर क्रान्ति के जनक महान क्रान्तिकारी व्लादिमीर इलिच लेनिन ने राज्य मशीनरी के विषय में कहा कि:-
"हमने राज्य की पुरानी मशीनरी को अपने हाथों में ले लिया और यह हमारा दुर्भाग्य था। अक्सर ऐसा होता है कि राज्य-मशीनरी हमारे खिलाफ काम करती है। 1917 में, हमारे सत्ता पर अधिकार करने के बाद सरकारी पदाधिकारियों ने हमारे लिए काम करने से इन्कार कर दिया। इससे हम बहुत भयभीत हुए और हमने उनसे अनुरोध करते हुए कहा: 'कृपा करके आप लोग वापस आ जाइये'। वे सब वापस आ गए, लेकिन यह हमारे लिए दुर्भाग्य की बात थी। अब हमारे पास सरकारी कर्मचारियों की एक बहुत बड़ी सेना है, परन्तु हमारे पास काफी संख्या में ऐसे सुशिक्षित लोग नहीं हैं जो उन पर सचमुच नियंत्रण रख सकें। व्यवहार में बहुधा ऐसा होता है कि सबसे ऊपरी संस्थाओं में, जहां पर हम राज्य सत्ता का उपयोग करते हैं, वहां तो मशीनरी किसी न किसी तरह काम करती रहती है; परन्तु नीचे की संस्थाओं में राज्य के इन पदाधिकारियों की पूरी हुकूमत रहती है और वे बहुधा इस हुकूमत को इस तरह लागू करते हैं कि वह हमारे उपायों के खिलाफ पड़ती है। ऊपर हमारे पास, मैं ठीक-ठीक तो नहीं कह सकता कि कितने हैं, लेकिन मैं समझता हूँ, हर हालत में कई हजार, ज्यादा हुए तो दसियों हजार, हमारे अपने लोग हैं। परन्तु नीचे लाखों ऐसे पुराने पदाधिकारी हैं जो जारशाही और पूंजीवादी समाज से हमारे पास आये हैं और जो कभी जानबूझकर और कभी अनजाने ही हमारे खिलाफ काम करते हैं।"15
             इस भाषण के एक सप्ताह बाद ही लेनिन ने पुनः कहा कि:-
"हमारी राजकीय मशीनरी पुरानी है अब हमारा कार्यभार यह है कि हम इस मशीनरी को नए सांचे में ढालें। हम ऐसा एकदम से नहीं कर सकते, लेकिन हमें अपना काम इस तरह संगठित करना चाहिए कि हमारे पास जो कम्युनिस्ट हैं, वे ठीक स्थानों पर नियुक्त कर दिए जाएं। इसके लिए आवश्यक है कि वे, यानि कम्युनिस्ट, उस मशीनरी का संचालन करें, जो उन्हें सौंपी जाए और ऐसा नहीं होना चाहिये, जैसा हमारे यहां प्रायः होता है कि यह मशीनरी ही उनका संचालन करने लगे।"16
            यही स्थिति 1949 की चीन की साम्यवादी क्रान्ति के बाद की भी थी। इस प्रकार स्पष्ट है कि साम्यवादी क्रान्तियों के पश्चात भी व्यावहारिक रूप से पुरानी राज्य मशीनरी को तुरन्त पूर्णतः परिवर्तित करना सम्भव नहीं हो पाता है और पुरानी राज्य मशीनरी लम्बे समय तक कार्य करती रहती है तथा राज्य की नीतियों को प्रभावित करती रहती है। वर्तमान में भारत की राज्य मशीनरी की संरचनात्मक स्थिति यह है कि शासन-प्रशासन और सेना के प्रत्येक महत्वपूर्ण और निर्णायक स्थानों सहित अधिकांश गौण स्थानों पर भी मनुवादियों का ही कब्जा है। इस प्रकार यदि भारत के तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी लोग सुदूर भविष्य में किसी तरह क्रान्ति करके सत्ता प्राप्त करने में सफल भी हो जाते हैं तब भी शासन-प्रशासन और सेना पर जाति व्यवस्था के पोषक मनुवादियों का ही कब्जा बना रहेगा। जो जाति उन्मूलन के लिये कोई प्रयास ही नहीं करेंगे।
            इस स्थिति के प्रति सचेत करते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि:-
"अगर कल कम्युनिस्ट भारत में अपनी राज्यसत्ता स्थापित कर लेते हैं तो उन्हें भी अपना शासन चलाने के लिये तीन चीजों की आवश्यकता होगी।
पहली आवश्यकता होगी प्रशासन चलाने वाली मशीनरी की अर्थात सिविल अफसरों की। दूसरी आवश्यकता होगी सेना की और तीसरी आवश्यकता होगी श्रम की अथवा श्रमिकों की।
             इस समय कांग्रेस में जो प्रशासनाधिकारी हैं, कम्युनिस्ट शासन होने पर उनसे पूछा जाएगा कि तुम सरकारी काम चलाने में अभ्यस्त हो। क्या तुम कम्युनिस्टों की नीति अनुसार सरकारी सेवाएं करने के लिये तैयार हो? उनका स्पष्ट उत्तर होगा कि हमने अंग्रेजी हुकूमत में अंग्रेजी शासन में श्रद्धा और सच्ची निष्ठापूर्ण एवं योग्यतापूर्ण काम किया था। तत्पश्चात कांग्रेसी राज्य में कांग्रेस की नीति अनुसार काम किया है। अब तुम्हारी कम्युनिस्ट नीति के अनुसार सरकारी प्रशासन चलाएंगे।
             कम्युनिस्ट सरकार इन अभ्यस्त प्रशासनाधिकारियों से अपनी नीति अनुसार काम लेगी और ऐसे प्रशासनाधिकारी काम देने के लिये तैयार हो जाएंगे।
            अब दूसरी श्रेणी में फौजी या सैनिक सेवाएं आएंगी। उनसे भी कम्युनिस्ट सरकार ऐसा ही प्रश्न पूछेगी और उनका भी उत्तर वही होगा जो प्रशासनाधिकारियों का है। कम्युनिस्ट सरकार इन सैनिकों तथा सेनाधिकारियों को भी स्वीकार कर लेगी।
            इस समय सरकारी प्रशासनाधिकारी और सेनाधिकारी तथा सेना का सारा संगठन सवर्ण हिन्दुओं का ही है। वही सवर्ण हिन्दू जैसे अंग्रेजी राज में बने रहे तत्पश्चात कांग्रेसी राज में जमे रहे वैसे ही वही प्रशासनाधिकारी अब कम्युनिस्ट राज में सत्ता सम्पन्न रहेंगे। भारत के अछूत, जनजातियां तथा पिछड़ा वर्ग शूद्र जैसे आज न तो प्रशासनिक अधिकारी हैं और न ही सेनाधिकारी, कल कम्युनिस्ट राज में भी उनका दखल नहीं होगा।
            अब आइये तीसरी श्रेणी जिसे श्रमिक श्रेणी कहा जाता है और जिसमें कृषक तथा सब प्रकार के परिश्रमी मजदूर आते हैं। इन्ही श्रेणियों में भारत का अछूत वर्ग भी आता है जिनका काम सड़कें साफ करना तथा गन्दगी उठाना, खेतों में मजदूर के रूप में काम करना, छोटी-मोटी दस्तकारी करना तथा कल-कारखानों में परिश्रम करना है।
             इन लोगों को मजदूरी अच्छी मिलेगी। रहने के लिये निवास स्थान भी मिल जाएंगे, किन्तु इन्हें न तो प्रशासनतन्त्र में और न ही सैनिक प्रशासन में दखल प्राप्त होगा, ये लोग जहां आज हैं अर्थात जो धंधे आज करते हैं वही करते रहेंगे। किन्तु इनकी आर्थिक दशा अब से अवश्य अच्छी हो जाएगी। इन श्रमिकों को अपने बच्चों को ऊंची शिक्षा दिलवा कर शासन या सेना में उच्चाधिकार दिलाने की रूचि ही नहीं रहेगी। वह अपनी भांति अपने बच्चों के हाथ में झाड़ू देकर कहेंगे कि जाओ सड़कों की गन्दगी साफ करो। लेकिन ऐसा करने से रोजगार तो मिल जायेगा किन्तु सम्मान और शासन में समान अधिकार नहीं मिलेगा। जब कभी कोई व्यक्ति यह प्रश्न उठाएगा कि हमारे बच्चों को भी प्रशासन में अधिकार मिलने चाहिए; तो कम्युनिस्ट सरकार का उत्तर होगा कि हमारी दृष्टि में प्रशासनाधिकारी और सड़कें साफ करने वाले मजदूर एक समान हैं। तुम्हें सड़कें साफ करने का पूरा अनुभव है इसलिए तुम यह काम करो और शासनाधिकार में जिन लोगों का अनुभव है वे वही काम करें। इसका परिणाम यह होगा कि आज का अछूत और पिछड़ा वर्ग समाज के तीसरे दर्जे पर ही रहेगा और वर्ण व्यवस्था के अनुयायी सवर्ण लोगों के हाथों में ही शासनाधिकार सत्ता बनी रहेगी। भले ही कम्युनिस्ट राज में इस तीसरी श्रेणी वालों से छुआछूत न रहे किन्तु इन्हें समाज की सीढ़ी के सबसे निचले डंडे पर ही रहना पड़ेगा और ऊपर वाले डंडे पुराने सवर्णों के कदमों के नीचे होंगे। यद्यपि कम्युनिस्टों के राज में भले ही तुम्हें अस्पृश्य न समझा जाये किन्तु तुम रहोगे सवर्णों के नीचे झाड़ू देने वाले ही।"17
             आगे बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर कहते हैं कि:-
"अछूत खेत मजदूरों ने तेलंगाना में बड़े-बड़े जमींदारों की भूमि छीनने में साम्यवादियों के साथ मिलकर संघर्ष किया। उनमें से सैकड़ों व्यक्ति मर भी गए। जब जमीन के बंटवारे का समय आया तो ऊंची जाति के साम्यवादियों ने अछूतों को कहा कि तुम तो खेत मजदूर हो, तुम जमीन लेकर क्या करोगे? जमीन तो उन लोगों को ही मिलेगी जो जमींदारी का काम करते हैं। अर्थात कम्मे, रेड्डी आदि जमींदार। तुम्हें खेत मजदूरी में मेहनताना मिल जायेगा। तुम्हारी मजदूरी की दर हम दुगुना कर देंगे, किंतु तुम्हे जमीन का स्वामी नहीं बनाया जा सकता। क्या यही उदाहरण सारे भारत में  साम्यवादी राज स्थापित होने से चरितार्थ नहीं होगा? जरूर होगा।"18
             इस प्रकार क्रान्ति के पश्चात तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी लोगों द्वारा जाति उन्मूलन हेतु कोई सार्थक प्रयास किया ही नहीं जायेगा बल्कि थोड़े परिवर्तनों के साथ जाति व्यवस्था को बनाये रखा जाएगा।
             उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि मार्क्स के विचारों द्वारा और मार्क्स के अनुयायी होने का ढोंग करने वाले तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी लोगों के कार्यक्रमों द्वारा भी जाति का उन्मूलन सम्भव नहीं है। वास्तव में तथाकथित मार्क्सवादी-साम्यवादी लोग जाति उन्मूलन की बात शोषित जातियों को धोखा देकर चुनावों में उनके मत हड़पने के लिये करते हैं। जबकि वास्तविकता तो यह है कि जाति व्यवस्था के बने रहने में ही इन तथाकथित साम्यवादियों का हित है। वास्तव में भारत में मनुवादियों ने ही मार्क्सवाद-साम्यवाद का मुखौटा लगा रखा है। इस तरह मनुवादियों के सगे भाई ये तथाकथित साम्यवादी लोग मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध शोषित वर्ग में पनप रहे आक्रोश को 'सेफ्टी वाल्व' की तरह ठंडा करते रहते हैं जिससे मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था सुरक्षित रहे।
            वास्तव में जाति व्यवस्था का उन्मूलन केवल बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की शिक्षाओं द्वारा ही सम्भव है।
                                             ------------- मैत्रेय
----------------------------------------
सन्दर्भ और टिप्पणियाँ
1.The German Ideology, Karl Marx And Friedrich Engels, Third Revised Edition- 1976, Progress Publishers, Moscow, Page- 64.
2.Karl Marx's letter to P. V. Annenkov, 28 December 1846, The Poverty of Philosophy, Karl Marx, First Edition- January 2009, First Reprint- January 2014, Publishers- Rahul Foundation Lucknow, Page- 154.
3.The Poverty of Philosophy, Karl Marx, First Edition, First Reprint- January 2014, Publication- Rahul Foundation, Lucknow, Page- 112.
4.The Poverty of Philosophy, Karl Marx, First Edition, First Reprint- January 2014, Publication- Rahul Foundation, Lucknow, Page- 116.
5.भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम, लेखक- कार्ल मार्क्स, भारत का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम, 1857-59, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, चतुर्थ हिन्दी संस्करण- मई 1985, पृष्ठ- 30-31, प्रकाशक- पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड, नई दिल्ली,
और, The Future Results Of The British Rule In India, Karl Marx, The First Indian War Of Independence 1857- 59, Karl Marx And Friedrich Engels, First Indian Edition 2011, Publisher- People's Publishing House Pvt. Ltd, Page- 29.
6.भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम, लेखक- कार्ल मार्क्स, भारत का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम, 1857-59, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, चतुर्थ हिन्दी संस्करण- मई 1985, पृष्ठ- 31, प्रकाशक- पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड, नई दिल्ली,
और, The Future Results Of The British Rule In India, Karl Marx, The First Indian War Of Independence 1857- 59, Karl Marx And Friedrich Engels, First Indian Edition 2011, Publisher- People's Publishing House Pvt. Ltd, Page- 29.
7.A Contribution to the Critique of Political Economy, Karl Marx, First Edition- January 2010, Publishers- Rahul Foundation, Lucknow, Page- 204.
8.पूंजी (Capital), खण्ड- 1, प्रथम हिन्दी संस्करण, कार्ल मार्क्स, प्रगति प्रकाशन, मास्को, पृष्ठ- 385
और, Capital Volume 1, Karl Marx, First Edition, Publishers- Maple Press Pvt, Ltd, Page- 343-344.
9.जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर,
बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वांङमय, खण्ड-1, पांचवां संस्करण- 2013, पृष्ठ-66,
प्रकाशक:- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली
और,
Dr. Baba Saheb Ambedkar Writings And Speeches, Volume 1, Third Edition- 14th April 2016, Page- 47, Publisher:- Higher and Technical Education Department, Government of Maharashtra.
10.गोथा कार्यक्रम की आलोचना (Critique of the Gotha Programme), कार्ल मार्क्स, संस्करण- जनवरी 2004, प्रकाशक- राहुल फाउंडेशन, लखनऊ, पृष्ठ- 14-15,
और, Historical Writings, Karl Marx And Friedrich Engels, Volume 1, Edited by- V. Adoratsky, Edition- January 2014, Publication- Rahul Foundation Lucknow, Page- 548-550.
11.जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर,
बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड- 1, पंचम संस्करण 2013, पृष्ठ- 91, प्रकाशक- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार,
और
Dr. Baba Saheb Ambedkar Writings and Speeches, Volume 1, Third Edition 2016, Page- 68,
Publisher- Higher Education Department, Government of Maharashtra.
12.जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर,
बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड- 1, पंचम संस्करण 2013, पृष्ठ- 92, प्रकाशक- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार,
और
Dr. Baba Saheb Ambedkar Writings and Speeches, Volume 1, Third Edition 2016, Page- 68-69,
Publisher- Higher Education Department, Government of Maharashtra.
13.फ्रांस में गृहयुद्ध (Civil War in France), कार्ल मार्क्स, संस्करण- जनवरी 2006, प्रकाशक- राहुल फाउंडेशन, लखनऊ, पृष्ठ- 53
और, Historical Writings, Karl Marx And Friedrich Engels, Volume 1, Edited by- V. Adoratsky, Edition- January 2014, Publication- Rahul Foundation Lucknow, Page- 483.
14.फ्रांस में गृहयुद्ध (Civil War in France), कार्ल मार्क्स, की फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा 1891 में लिखित भूमिका से, फ्रांस में गृहयुद्ध (Civil War in France), कार्ल मार्क्स, संस्करण- जनवरी 2006, प्रकाशक- राहुल फाउंडेशन, लखनऊ, पृष्ठ- 17-18,
और, Historical Writings, Karl Marx And Friedrich Engels, Volume 1, Edited by- V. Adoratsky, Edition- January 2014, Publication- Rahul Foundation Lucknow, Page- 449.
15.व्लादिमीर इलिच लेनिन द्वारा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की चौथी कांग्रेस में प्रस्तुत की गई रिपोर्ट, 13 नवम्बर 1922,
व्लादिमीर इलिच लेनिन, अक्टूबर क्रान्ति की वर्षगाँठों पर लेख और भाषण, द्वितीय संस्करण- 1981, प्रगति प्रकाशन मास्को, पृष्ठ- 96.
16.मास्को सोवियत के 20 नवम्बर 1922 के पूर्ण अधिवेशन में व्लादिमीर इलिच लेनिन द्वारा दिया गया भाषण,
व्लादिमीर इलिच लेनिन, अक्टूबर क्रान्ति की वर्षगाँठों पर लेख और भाषण, द्वितीय संस्करण- 1981, प्रगति प्रकाशन मास्को, पृष्ठ- 109.
17.बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क में पच्चीस वर्ष, लेखक- सोहनलाल शास्त्री, द्वितीय संस्करण- 2013, प्रकाशक- सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ- 153-154.
18.बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क में पच्चीस वर्ष, लेखक- सोहनलाल शास्त्री, द्वितीय संस्करण- 2013, प्रकाशक- सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ- 154.

No comments:

Post a Comment