Wednesday, February 13, 2019

जाति व्यवस्था और जातिवाद

             सामान्यतः लोग जातिवाद शब्द से परिचित हैं। तथाकथित बुद्धिजीवी, मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया, मनुवादी राजनीतिज्ञ, तथाकथित साम्यवादी और तथाकथित समाज सुधारक प्रायः जातिवाद को पानी पी-पी कर कोसते हैं और इसे समाज की तथाकथित एकता के लिए अत्यधिक हानिकारक घोषित करते हैं। इसीलिए 'जातिवाद' को समझना और इस बात को भी समझना कि केवल जातिवाद को ही हानिकारक क्यों बताया जाता है, आवश्यक हो जाता है।
             'जातिवाद' को सामान्य रूप से इस प्रकार परिभाषित किया जाता है:-
"एक जाति के सदस्य बिना किसी अन्य कारण के केवल जातिगत लगाव से प्रेरित होकर अपनी जाति के लोगों के पक्ष में कार्य करते हैं, भले ही इस कारण अन्य जातियों के न्यायोचित हितों को हानि पहुँचती हो। इस प्रवृत्ति को ही 'जातिवाद' कहा जाता है।"
             इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जातिवाद कोई निरपेक्ष धारणा नहीं है बल्कि 'जातिवाद' के लिए 'जाति' का अस्तित्व होना आवश्यक है तथा 'जाति' का अस्तित्व होने के लिए 'जाति व्यवस्था' का अस्तित्व होना आवश्यक है। अर्थात जब समाज में 'जाति व्यवस्था' का अस्तित्व होगा तभी 'जातिवाद' का जन्म होगा। दूसरे शब्दों में जातिवाद को पनपने के लिए जाति व्यवस्था की भूमि आवश्यक है।
             यदि हम थोड़ा भी अन्वेषण करेंगे तो यह जानेंगे कि आजकल प्रचलित जातिवाद शब्द 1990 के बाद ही प्रमुखता से चर्चा में आया है। 1990 से पहले किसी ने जातिवाद शब्द को गंभीरता से नहीं लिया था। तब कुकुरमुत्तों की तरह से उगे हुए तथाकथित समाज के ठेकेदारों को जातिवाद की कोई सुध नहीं थी। परंतु 1990 के बाद भारतीय राजनीति, तथाकथित साम्यवादियों और तथाकथित बुद्धिजीवियों के बीच 'जातिवाद' शब्द अत्यधिक प्रचलित हो गया तथा जातिवाद की बुराई करना (लेकिन जाति व्यवस्था पर चुप्पी साधे रहना) 'फैशन' बन गया। इसका कारण यह है कि 1990 तक भारतीय राजनीति में तथाकथित उच्च जातियों का ही वर्चस्व था। परन्तु उसके बाद ऐसे राजनीतिक दलों के उभरने से, जिनमें से अधिकाँशतः समाज की तथाकथित निम्न जातियों द्वारा ही गठित थे और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़ी जातियों के राजनीति में सक्रिय होने के कारण इस वर्चस्व को कुछ ठेस पहुंची है।
             यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत में शोषित वर्ग के अधिकांश सदस्य अनुसूचित जातियों से हैं। इसके साथ ही अनुसूचित जातियों के अतिरिक्त शोषित वर्ग में अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जनजातियां और धार्मिक अल्पसंख्यकों के निर्धन लोग सम्मिलित भी हैं। इन्ही लोगों के बीच ही ऐसे अधिकांश राजनीतिक दलों का जनाधार है, जिनका नेतृत्व तथाकथित निम्न जातियां कर रही हैं। इसी कारण तथाकथित उच्च जातियों द्वारा इन दलों को 'जातिवादी' कहकर इनकी आलोचना की गयी और दुष्प्रचार किया गया कि ये तथाकथित निम्न जातियों के नेतृत्व वाले राजनीतिक दल जाति के आधार पर राजनीति करके जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं।
              बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के संघर्षों के फलस्वरूप शोषित जातियों को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हुए लेकिन शोषित जातियों को राजनीतिक रूप से सक्रिय होने में कुछ विलम्ब हुआ। पहले शोषित जातियों के अधिकांश मतदाता अपने मत कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, तथाकथित साम्यवादी दलों आदि अन्य मनुवादी-पूंजीवादी दलों को देते थे। परन्तु इन दलों ने शोषित जातियों को केवल धोखा ही दिया और उनके हित में कोई कार्य नहीं किया। यह सब तीन मुख्य कारणों से हुआ:-
(1) शोषित जातियों में जागरूकता और अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिये पर्याप्त चेतना नहीं थी जिस कारण वे मनुवादी-पूंजीवादी राजनीतिक दलों के प्रचार से प्रभावित हो जाते थे।
(2) शोषित जातियों के ही कुछ 'टुकड़खोर' लोग जो विभिन्न मनुवादी-पूंजीवादी दलों में मनुवादियों के तलवे चाटते रहते हैं, वे ही लोग व्यक्तिगत लाभ के बदले शोषित जातियों के अधिकांश मतों को इन मनुवादी-पूंजीवादी राजनीतिक दलों को दिलवा देते थे।
(3) मनुवादी-पूंजीवादी राजनीतिक दलों के अतिरिक्त शोषित जातियों के पास कोई अन्य विकल्प ही नहीं था जिन्हें वो अपने मत देते।
             शोषित जातियों के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों के उद्भव के कारण भारतीय राजनीति एक नयी दिशा की ओर उन्मुख हुयी। अब शोषित जातियों के लोगों के अधिकांश मत मनुवादी-पूंजीवादी राजनीतिक दलों को ना मिलकर इन्ही राजनीतिक दलों को मिलने लगे। इस कारण कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, तथाकथित साम्यवादी दलों आदि मनुवादी-पूंजीवादी राजनीतिक दलों और इस कारण मनुवादी वर्ग के स्वार्थों को अत्यधिक हानि होने लगी। यह एक प्रकार से मनुवादी व्यवस्था पर भी गहरा आघात था। इसलिए विभिन्न क्षेत्रों में स्थित मनुवादी तत्व इस नयी प्रवृत्ति के विरोध में सक्रिय हो गए और चारों ओर जातिवाद का शोर सुनाई देने लगा। आज जातिवाद के विरोध का सम्पूर्ण चिंतन इन्हीं शोषित जातियों के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों की राजनीति के विरोध पर टिका है। मनुवादी तथाकथित बुद्धिजीवी, तथाकथित साम्यवादी और मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों द्वारा अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों की प्रमुखता वाले दलों को ही अपने मत देने का  'जातिवाद' के नाम पर विरोध करते हैं। परन्तु जब तथाकथित उच्च जातियों के लोग तथाकथित उच्च जातियों के लोगों को ही मत देते हैं, तब ये मनुवादी तथाकथित बुद्धिजीवी, तथाकथित साम्यवादी और मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया चुप्पी साध लेते हैं।
             इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गं द्वारा अपने अधिकारों की प्राप्ति और शोषण के उन्मूलन हेतु संगठित होकर संघर्ष करने को 'जातिवाद' का नाम दिया जाता है परन्तु तथाकथित उच्च जातियों द्वारा जाति के नाम पर अपनी जाति के लोगों का पक्ष पोषण करने को 'जातिवाद' नहीं कहा जाता है। सच्चाई यह है कि तथाकथित उच्च जातियों के लोग शोषित जातियों के मतों से ही चुनाव जीतते हैं लेकिन अपनी ही जाति के लोगों का पक्ष पोषण करते हैं। मनुवादी मानसिकता से ग्रस्त होने के कारण तथाकथित उच्च जाति का कोई भी सदस्य अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के लोगों को मत नहीं देता। लेकिन इसको मनुवादी लोग जातिवाद नहीं कहते। इस प्रकार मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग जातिवाद को कपटपूर्वक परिभाषित करते हुए शोषित जातियों को राजनीतिक रूप से संगठित होने से रोकने का षड़यंत्र रच रहा है।
               'जातिवाद' का शोर मचाने के पीछे मुख्य कारण यह है कि जातिवाद-जातिवाद चिल्ला कर मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग जाति व्यवस्था का उन्मूलन करने की तरफ से शोषित जातियों का ध्यान हटाना चाहता है। इस तरह मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग वर्तमान मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को चिरस्थायी बनाए रखना चाहता है। मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग जातिवाद के शोर में जाति व्यवस्था के प्रति शोषित जातियों के आक्रोश को जातिवाद के विवाद की ओर मोड़कर जाति व्यवस्था को बचाये रखने का प्रयास कर रहा है। आज मनुवादी, तथाकथित बुद्धिजीवी, तथाकथित साम्यवादी, मनुवादी-पूंजीवादी दलाल मीडिया 'जातिवाद' के विरुद्ध तो लम्बी-लम्बी बहसें करते हैं लेकिन 'जाति व्यवस्था' के उन्मूलन की बात आते ही चुप्पी साध लेते हैं। उनकी यह चुप्पी ही उनकी पोल खोल देती है।
             वास्तव में मुख्य समस्या जाति व्यवस्था है। जब तक 'जाति व्यवस्था' का उन्मूलन नहीं किया जाएगा तब तक केवल 'जातिवाद' को समाप्त करने की बातें करना केवल बकवास ही है। मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग ही 'जाति व्यवस्था' और 'जातिवाद' का जनक है और वही इनसे लाभान्वित हो रहा है। जब 'जाति व्यवस्था' का उन्मूलन किया जाएगा तब ना ही 'जाति' रहेगी और ना ही 'जातिवाद' रहेगा। तब समतामूलक, शोषणमुक्त समाज का निर्माण होगा।
              निष्कर्ष यह है कि मुख्य समस्या 'जातिवाद' नहीं है बल्कि 'जाति व्यवस्था' है।
                                         ---------- मैत्रेय

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