Tuesday, February 12, 2019

बाबा साहेब के सपनों का भारत और शोषित वर्ग

             आज सम्पूर्ण विश्व जानता है कि भारतीय संविधान की रचना बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने की है। परन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने उक्त संविधान की रचना करने से पहले एक और संविधान की रचना की थी और यही पूर्व रचित संविधान बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के सपनों के भारत का निर्माण करता। इसी पूर्व रचित संविधान में शोषितों के उत्थान हेतु समतामूलक और शोषणमुक्त भारत बनाने के लिये बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की वास्तविक कार्ययोजना थी।
             संविधान निर्माण के समय भारत के करोड़ों शोषितों को अधिकार दिलाने तथा इसके लिये राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करने के उद्देश्य से बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष और संविधान सभा में प्रस्तुत करने हेतु एक ज्ञापन तैयार किया था। परन्तु संविधान सभा में अधिसंख्य मनुवादियों के असहयोग, अवरोध और जातिगत विरोध के कारण यह ज्ञापन भारतीय संविधान का आधार नहीं बन सका। उपरोक्त ज्ञापन 'राज्य और अल्पसंख्यक (States and Minorities)' नाम से प्रकाशित हुआ था और अत्यंत प्रसिध्द हुआ। यह कृति वास्तव में बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा रचित वास्तविक संविधान है जिसके द्वारा बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर सच्चे अर्थों में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे। इसी कृति में बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने अपने अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धान्त 'राज्य समाजवाद (State Socialism)' का प्रतिपादन किया है। यही वास्तविक संविधान था जिसे वो स्वतंत्र भारत का संविधान बनाना चाहते थे क्योंकि आज जो संविधान अस्तित्व में है वह बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की आशाओं के पूर्णतः अनुरूप नहीं है बल्कि संविधान सभा में मनुवादियों के छल-कपट, कुटिल चालों और उनकी राजनीतिक तिकड़मबाजियों से जूझते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर से जितना सम्भव हो सका शोषितों हेतु उतने अधिकतम प्रावधानों सहित संविधान है। परन्तु यह उस वास्तविक संविधान का अत्यंत सूक्ष्म अंश है। इसी कारण बाद में बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने स्वयं ही भारतीय संविधान को जलाने की बात की थी।
              बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की इसी महत्वपूर्ण कृति से निम्न उध्दरण लिये गए है:-
"संयुक्त राज्य भारत अपने संविधान के कानून के अंग के रूप में घोषित करेगा कि:-
(आर्थिक शोषण के विरुद्ध संरक्षण)
(1) वे उद्योग जो आधारभूत हैं अथवा जिन्हें आधारभूत उद्योग घोषित किया जा सकता है, उनका स्वामित्व एवं संचालन राज्य द्वारा किया जायेगा,
(2) वे उद्योग जो आधारभूत उद्योग तो नहीं हैं, किन्तु प्रधान उद्योग (Basic Industry) हैं, उनका स्वामित्व एवं संचालन राज्य द्वारा अथवा राज्य द्वारा स्थापित निगमों द्वारा किया जायेगा।
(3) बीमा पर राज्य का एकाधिकार होगा और राज्य प्रत्येक वयस्क को विधायिका द्वारा निर्धारित उसकी मजदूरी के समानुपातिक एक जीवन बीमा पॉलिसी लेने के लिये बाध्य करेगा,
(4) कृषि राज्य उद्योग (State Industry) होगा,
(5) राज्य ऐसे उद्योगों, बीमा और कृषि भूमि, जो निजी व्यक्तियों के हाथ में या तो जमींदारों, काश्तकारों (Tenants) अथवा बंधकों (Mortgagees) के रूप में है, उन व्यक्तियों को भूमि पर उनके अधिकार के मूल्य के बराबर ऋण-पत्र में मुआवजा देकर जीविका के अधिकारों को अधिग्रहीत करेगा। किन्तु भूमि, संयंत्र या प्रतिभूति (Security) के मूल्य की गणना करते हुए उसमें अन्तर्निहित वृद्धि जो आपात कारण से हो, का कोई मूल्यांकन नहीं किया जायेगा और न किसी संभावना (Potentia) अथवा अनर्जित मूल्य (Unearned Value) या अनिवार्य अधिग्रहण के लिये किसी मूल्य का ही कोई मूल्यांकन किया जायेगा,
(6) राज्य यह निर्धारित करेगा कि ऋण-पत्र धारक कब और कैसे नकद भुगतान के दावे का हकदार होगा,
(7) ऋण-पत्र हस्तांतरणीय और विरासत योग्य सम्पत्ति होंगे किन्तु न तो ऋण-पत्र धारक और न मूल धारक से हस्तांतरण पाने वाला, न उसका वारिस ही राज्य द्वारा अधिग्रहीत किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान के ब्याज या भूमि की वापसी का हकदार होगा और न वह इसके किसी प्रकार के निपटान (Deal) का हकदार होगा,
(8) ऋण-पत्र धारक अपने ऋण-पत्र पर ब्याज का हकदार होगा, जिसकी दर कानून द्वारा निश्चित की जायेगी और उसका भुगतान राज्य द्वारा नकद अथवा वस्तु के रूप में जैसा भी राज्य ठीक समझे, किया जायेगा,
(9) कृषि उद्योग निम्न आधार पर गठित किया जायेगा:-
(I) राज्य अधिग्रहीत भूमि को मानक आकार (Standard Size) के खेतों में विभाजित करेगा और उन खेतों को पट्टेदारों के रूप में काश्तकारों (कृषक परिवारों के समूह से निर्मित) को निम्न शर्तों पर खेती करने के लिये देगा:-
(क) खेती सामूहिक (Collective) रूप में की जायेगी,
(ख) सरकार द्वारा जारी नियमों और निर्देशों के अनुसार खेती की जायेगी,
(ग) खेत पर लगाये जाने वाले प्रभार को उचित रूप से अदा करने के बाद काश्तकार खेत के शेष उत्पाद को निर्धारित ढंग से आपस में बाँट लेंगे।
(II) बिना जाति या पंथ के भेदभाव के, गाँव के लोगों को भूमि पट्टे पर दी जायेगी, ताकि न कोई जमींदार रहे, न कोई पट्टेदार रहे और न ही कोई भूमिहीन मजदूर रहे,
(III) बीज, खाद, औजार, पशु तथा पानी इत्यादि की आपूर्ति कर सामूहिक फार्मों की खेती को वित्तीय सहायता देने की जिम्मेदारी राज्य की होगी,
(IV) राज्य को अधिकार होगा कि:-
(क) कृषि उत्पाद पर निम्न प्रभार वसूल किये जायेंगे:-
(A) भू-राजस्व का एक अंश,
(B) ऋण-पत्र धारकों को अदा करने के लिये एक अंश और
(C) पूंजीगत माल (Capital goods) के उपयोग के लिये अदा करने के लिये एक अंश, और
(ख) उन पट्टेदारों के विरुध्द जुर्माना लगाने का अधिकार होगा जो पट्टेदारी की शर्तों को तोड़ेंगे या राज्य द्वारा प्रस्तावित खेती के साधनों के सर्वोत्तम उपयोग को जान-बूझ कर उपेक्षित करेंगे या सामूहिक खेती की योजना के विरुध्द कोई पूर्वाग्रह युक्त कार्य करेंगे।
(10) यह योजना यथाशीघ्र आरम्भ हो जायेगी, किन्तु किसी भी स्थिति में यह अवधि संविधान लागू होने की तारीख से दसवें वर्ष के बाद नहीं बढ़ाई जाएगी।"1
             उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि समतामूलक और शोषणमुक्त समाज के निर्माण के लिये बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर सम्पत्ति के असमानतापूर्ण वितरण को समाप्त करके सम्पत्ति का न्यायपूर्ण विभाजन करना चाहते थे और इसके लिये उत्पादन के साधनों अर्थात उद्योगों और भूमि पर निजी स्वामित्व समाप्त करके उनका राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे। इसमें कृषि को राष्ट्रीय उद्योग बनाकर सदियों से चले आ रहे शोषितों के मनुवादी शोषण का उन्मूलन करने की अत्यंत महत्वपूर्ण योजना थी।
               इस योजना की व्याख्या करते हुये बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर कहते हैं:-
"इस खंड (आर्थिक शोषण के विरुद्ध संरक्षण) के पीछे मुख्य उद्देश्य राज्य के ऊपर लोगों के आर्थिक जीवन को इस प्रकार नियोजित करने की जिम्मेदारी डालना है जिससे निजी क्षेत्र के प्रत्येक अवसर को बंद किये बिना, उत्पादकता के सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके और सम्पत्ति के समान वितरण की व्यवस्था की जा सके। इस खंड में प्रस्तावित योजना है कि उद्योग के क्षेत्र में 'राज्य समाजवाद (State Socialism) और खेती की सामूहिक पद्धति (Collective Farming) के साथ कृषि पर राज्य का स्वामित्व होगा। यह कृषि के साथ-साथ उद्योग के लिये आवश्यक पूँजी की आपूर्ति करने की जिम्मेदारी सीधे राज्य के कंधों पर डालता है।"2
            भारत को औद्योगिक महाशक्ति बनाने और आर्थिक असमानता समाप्त करने हेतु बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर पुनः कहते हैं:-
"भारत के तीव्र औद्योगीकरण के लिये राज्य समाजवाद बहुत जरूरी है। निजी उद्यम यह काम नहीं कर सकते और यदि कर भी सके तो वे सम्पत्ति की उन्ही असमानताओं को जन्म देंगे जिन्हें यूरोप में निजी पूँजीवाद ने उत्पन्न किया था और जो भारतीयों के लिये एक चेतावनी होनी चाहिये। भूमि चकबंदी तथा काश्तकारी कानून (Tenancy Legislation) निकृष्टतम से भी गए-गुजरे हैं। वे कृषि क्षेत्र में सम्पन्नता या खुशहाली नहीं ला सकते। न तो चकबंदी कानून और न ही काश्तकारी कानून छः करोड़ अस्पृश्यों (उस समय देश की अनुसूचित जातियों की जनसंख्या लगभग छः करोड़ थी) का कोई भला कर सकते हैं। केवल इस प्रस्तावित योजनानुसार सामूहिक खेती ही उनकी सहायता कर सकती है।"3
              बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर विश्व के अन्य देशों के संविधानों से आगे बढ़ते हुए भारत के संविधान में ही उपरोक्त आर्थिक व्यवस्था का प्रावधान करके राज्य समाजवाद की स्थापना करना चाहते थे जिससे भविष्य में मनुवादी-पूंजीवादी तत्व उसमें परिवर्तन ना कर सकें।
"इस योजना में दो मुख्य विशेषताएं हैं। एक यह कि आर्थिक जीवन के महत्वपूर्ण क्षेत्र में राज्य समाजवाद की स्थापना करना और दूसरी यह है कि राज्य समाजवाद की स्थापना को विधायिका की इच्छा पर नहीं छोड़ा जायेगा। यह राज्य समाजवाद को स्वयं संविधान के कानून के द्वारा ही स्थापित करती है और इस प्रकार इसे विधायिका और कार्यपालिका के किसी भी कार्य से बदलना सम्भव नहीं होगा।"4
             इसके साथ ही यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर यह सभी क्रांतिकारी परिवर्तन बिना हिंसा के और संसदीय लोकतंत्र को हानि पंहुचाये बिना करना चाहते थे।
"यह सत्य है इस योजना में संसदीय लोकतंत्र को समाप्त किये बिना राज्य समाजवाद की स्थापना करने का प्रयास किया गया है और इसमें राज्य समाजवाद की स्थापना को संसदीय लोकतंत्र की इच्छा पर नहीं छोड़ा गया है।"5
            बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर यह भली-भांति जानते थे कि बिना आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना किये राजनीतिक लोकतंत्र व्यर्थ ही होता है। एक दास अपने मालिकों की इच्छा के विरुध्द अपने मताधिकार का उपयोग नहीं कर सकता। इसीलिये बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा था:-
"जो लोग बेरोजगार हैं उनसे पूछो कि मौलिक अधिकार उनके लिये किस काम के हैं। यदि किसी बेरोजगार व्यक्ति को दो में से किसी एक नौकरी को चुनने का प्रस्ताव किया जाए, जिसमें थोड़ी बहुत मजदूरी मिले, जिसके श्रम का न तो कोई समय हो, न किसी यूनियन में शामिल होने की छूट हो और दूसरी ओर अभिव्यक्ति, संगठन, धर्म इत्यादि की स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग, तो इसमें कोई संशय हो सकता है कि उसका चयन क्या होगा। दूसरा चयन हो भी कैसे सकता है? भूखों मरने का भय, मकान गंवाने का डर, यदि कोई बचत है तो उससे हाथ धो बैठने की दहशत, बच्चों को विद्यालय से हटाने की मजबूरी, सार्वजनिक दान-खैरात पर बोझ बनने तथा सरकारी खर्च पर अंतिम संस्कार किये जाने का भय- ये इतने प्रभावशाली कारण हैं जो कि किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों के पक्ष में खड़े रहने की अनुमति नहीं दे सकते। इस प्रकार बेरोजगार लोगों को काम की सुविधा प्राप्त करने और जीवित रहने के लिये अपने मौलिक अधिकारों को छोड़ने के लिये मजबूर होना पड़ता है।
               जो रोजगार पाये हुए हैं उनकी क्या दशा है? संवैधानिक कानूनविद केवल इतना सोच लेते हैं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा केवल मौलिक अधिकारों के कानून बना देने से ही हो जाती है और इससे अधिक कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। उनका तर्क होता है कि जहाँ राज्य आर्थिक-सामाजिक जैसे निजी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है वहां आवश्यक यह है कि जितना संभव हो सके इस शेष का अधिक से अधिक विस्तार किया जाए। यह ठीक है कि जहाँ राज्य हस्तक्षेप करने से संकोच करता है वहां जो शेष बच जाता है वह स्वतंत्रता होती है। किंतु बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती है। एक अन्य प्रश्न का उत्तर भी देना होगा। यह स्वतंत्रता किसे और किसके लिये है? स्पष्टतः यह जमींदारों को लगान बढ़ाने की स्वतंत्रता, पूंजीपतियों को काम के घण्टे बढ़ाने एवं मजदूरी या वेतन की दरें कम करने की स्वतंत्रता है। यह स्वतंत्रता निश्चित रूप से ही ऐसी होगी। इसके विपरीत वह हो भी कैसी सकती है? क्योंकि किसी भी अर्थव्यवस्था में श्रमिकों की फ़ौज भर्ती करना, अधिक से अधिक उत्पादन करना- इसके लिये आवश्यक है कि किसी प्रकार के नियम निर्धारित किये जायें जिससे वे श्रमिक काम में जुटे रहें और उद्योगों के पहिये घूमते रहें। यदि राज्य यह काम नहीं करेगा, तो निजी मालिक इसे करेंगे अन्यथा तो जीवन ही असम्भव हो जायेगा। दूसरे शब्दों में राजकीय हस्तक्षेप से अथवा राज्य के नियंत्रण से मुक्त जो स्वतंत्रता कही जाती है, वह निजी मालिकों या पूंजीपतियों की तानाशाही का ही दूसरा नाम है।"6
               इसीलिये बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने वास्तविक लोकतंत्र को परिभाषित भी किया है:-
"लोकतंत्र का सार 'एक व्यक्ति-एक मूल्य (One Man-One Value)' के सिद्धान्त में निहित है। खेद है कि लोकतंत्र में 'एक व्यक्ति-एक मत (One Man-One Vote)' का नियम अपना कर, जहाँ तक राजनैतिक ढांचे का सम्बन्ध है केवल वहीँ तक इस सिद्धांत को लागू करने का प्रयास किया गया है। जबकि 'एक व्यक्ति-एक मत' के नियम को 'एक व्यक्ति-एक मूल्य' के सिद्धांत में यथार्थ रूप से परिवर्तित किया जाना चाहिये था।"7
             बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने पुनः कहा:-
"अब समय आ गया है कि साहसिक कदम उठा कर समाज के राजनीतिक ढांचे के साथ-साथ आर्थिक ढांचे को भी संवैधानिक कानून के द्वारा तय किया जाए।"8
             शोषितों की सामाजिक मुक्ति के कई प्रावधान करने के साथ ही साथ बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने मनुवादियों द्वारा शोषितों के सामाजिक बहिष्कार करने के विरुध्द अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रावधान करते हुए और सामाजिक बहिष्कार को अपराध घोषित करते हुए इसके लिये दोषियों को सजा का प्रावधान किया।
"सामाजिक बहिष्कार के विरुध्द संरक्षण-
सामाजिक बहिष्कार करना अथवा सामाजिक बहिष्कार करने के लिये उकसाना अथवा सामाजिक बहिष्कार की धमकी देना, जैसा कि निम्नवत परिभाषित किया गया है, एक अपराध घोषित किया जाता है:-
(I) बहिष्कार की परिभाषा:- वह व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति का बहिष्कार करने वाला समझा जायेगा जो-
(क) किसी भूमि या मकान को किराये पर देने या उपयोग करने अथवा काबिज होने से दूसरे व्यक्ति को मना करता है, अथवा किसी अन्य व्यक्ति के साथ लेन-देन करने या मजदूरी पर काम करने या अन्य व्यक्ति से व्यापार से इन्कार करता है अथवा उस व्यक्ति से कोई सेवा लेने अथवा कार्य को उन शर्तों पर करने से इन्कार करता है जिन पर कि ऐसी कार्यवाही कामकाज के दौरान आम तौर पर साझे तरीके से होनी चाहिये, अथवा
(ख) समाज में विद्यमान ऐसी रूढ़ियों, जो कि संविधान में घोषित नागरिक के मौलिक अधिकारों या अन्य अधिकारों के अनुरूप नहीं है, का ख्याल रखते हुए ऐसे सामाजिक, व्यावसायिक या व्यापारिक संबंधों से विरत रहता है या सामान्यतः विरत रहने वाले व्यक्ति का समर्थन करता है, अथवा
(ग) किसी दूसरे व्यक्ति के विधिसम्मत अधिकारों के प्रयोग में किसी प्रकार क्षति पंहुचाता है, क्षुब्ध करता है या व्यवधान डालता है।"9
              पूना पैक्ट के दुष्प्रभावों का उन्मूलन करने के लिये बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने पुनः पृथक निर्वाचन की प्रणाली का प्रावधान किया:-
"चुनाव प्रणाली:-
(I) विधायी निकायों के लिये-
(क) पूना समझौते (Poona Pact) द्वारा शुरू की गई चुनाव पद्धति समाप्त हो जायेगी।
(ख) इसके स्थान पर पृथक निर्वाचक मण्डल (Separate Electorates) की पद्धति शुरू की जायेगी।
(ग) मताधिकार वयस्क मताधिकार होगा।
(घ) मतदान की पद्धति संचयी निर्वाचन (Cumulative) होगी।"10
              बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने शोषित जातियों को तथाकथित हिन्दू धर्म से अलग उनको अल्पसंख्यक सिध्द किया था और संविधान में भी उनको अल्पसंख्यक ही घोषित किया था:-
"अनुसूचित जातियां एक अल्पसंख्यक समुदाय
(I) अनुच्छेद 2 के उद्देश्यों से अनुसूचित जातियां, जैसा कि भारत सरकार अधिनियम 1935 के अधीन जारी किये गए अनुसूचित जाति आदेश- 1936 में परिभाषित किया गया है, अल्पसंख्यक मानी जायेंगी।"11
               अब पाठक स्वयं कल्पना का सकते हैं कि यदि उपरोक्त सभी प्रावधान वर्तमान भारतीय संविधान में सम्मिलित हो जाते और संविधान बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की आशाओं के अनुरूप बनता तो आज शोषितों पर होने वाले अत्याचारों, बलात्कारों, सामूहिक बलात्कारों, हत्याओं, दमन, निर्धनता, अशिक्षा और अज्ञानता का उन्मूलन हो जाता और समतामूलक व शोषणमुक्त समाज का निर्माण होता। परन्तु मनुवादियों ने यह नहीं होने दिया क्योंकि शोषितों के अशिक्षित, अज्ञानी, निर्धन, परावलंबी बने रहने में ही मनुवादियों का हित है।
               भारतीय समाज के घोर विषमतापूर्ण स्वरुप के कारण ही 4 नवम्बर 1948 को संविधान सभा में भारतीय संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते समय बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा था:-
"यद्यपि हर कोई यह मानता है कि किसी भी प्रजातंत्रात्मक संविधान के अनुसार शांतिपूर्वक कार्य चलाने के लिये 'संविधान सम्बंधी नैतिकता' को प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है, लेकिन इसी से सम्बंधित दो ऐसी बातें हैं, जिनकी ओर दुर्भाग्य से यथोचित ध्यान नहीं दिया जाता है। एक बात तो यह है कि अनुशासन के स्वरुप का संविधान के स्वरुप से निकट सम्बन्ध है। अनुशासन पद्धति संविधान के स्वरूप के साथ मेल खाने वाली और वैसी ही होनी चाहिये। दूसरी बात यह है कि संविधान के स्वरुप में बिना किसी प्रकार का परिवर्तन लाए भी यह पूरी तरह सम्भव है कि केवल शासन-व्यवस्था को बदलकर, संविधान को विकृत कर दिया जाए और उसे परस्पर विरोधी तथा उसके अपने उद्देश्य की सिद्धि में बाधक बना दिया जाए। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जहाँ के लोग 'संविधान सम्बंधी नैतिकता' की भावना से ओत-प्रोत हों- ऐसी भावना से, जिसकी बात माननीय ग्रोटे इतिहासज्ञ ने की है- वहीं हम यह खतरा मोल ले सकते हैं कि शासन की बातों को संविधान के अंतर्गत न लें और उनके निश्चय करने का कार्य कानून बनाने वाली सभा पर छोड़ दें। प्रश्न यह है कि क्या हम यह मान कर चल सकते हैं कि 'संविधान सम्बंधी नैतिकता' सुप्रतिष्ठित है। 'संविधान सम्बंधी नैतिकता' कोई प्रकृति-सिद्ध भावना नहीं है। इसका अभ्यास करना होता है। हमें यह समझ लेना चाहिये कि हमारे लोगों को अभी इसे सीखना है। भारतीय मिट्टी भीतर से अप्रजातंत्रात्मक है, उसी पर ऊपर से प्रजातंत्रवाद की चाशनी चढ़ाई गई है।"12
              इस घोर आर्थिक विषमता और शोषण के प्रति मनुवादियों को चेतावनी देते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने दिनांक 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में कहा:-
"सामाजिक स्तर पर हमारे भारत में हमारी एक ऐसी समाज व्यवस्था है जो क्रमानुसार निश्चित असमानता के सिद्धान्त पर आश्रित है जिसका अर्थ कुछ व्यक्तियों की उन्नति और कुछ का पतन है। आर्थिक स्तर पर हमारा एक ऐसा समाज है जिसमें कुछ लोग ऐसे हैं जिनके पास अतुल सम्पत्ति है और कुछ ऐसे हैं जो निरी निर्धनता में जीवन बिता रहे हैं। 26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों से परिपूर्ण जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीतिक जीवन में हम समता का व्यवहार करेंगे और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में असमानता का। राजनीति में हम एक व्यक्ति के लिये एक मत और एक मत का एक मूल्य के सिद्धान्त को मानेंगे। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के कारण एक व्यक्ति का एक ही मूल्य के सिद्धान्त का हम खण्डन करते रहेंगे। इन विरोधाभासों से परिपूर्ण जीवन को हम कब तक बिताते चले जायेंगे? यदि हम इसका बहुत काल तक खण्डन करते रहेंगे तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डाल देंगे। हमें इस विरोध को यथासंभव शीघ्र ही मिटा देना चाहिये। अन्यथा जो असमानता से पीड़ित हैं वे लोग इस राजनीतिक लोकतंत्र की उस रचना का विध्वंस कर देंगे जिसका निर्माण इस सभा (संविधान सभा) ने इतने परिश्रम के साथ किया है।"13
              परन्तु मनुवादियों ने बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की उक्त चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया और संविधान लागू होने के बाद भी शोषितों के शोषण में कोई कमी नहीं आयी बल्कि अब तो मनुवादी बिना किसी भय के शोषित जातियों पर अत्याचार करने लगे हैं। इन्ही बातों से छुब्ध होकर बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने भारतीय संविधान की असफलता को घोषित कर दिया तथा संविधान को जलाने तक की घोषणा की। बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने दिनांक 2 सितम्बर 1953 को आंध्र प्रदेश विधेयक, 1953 पर बोलते हुए भारतीय संविधान को नकारते हुए अत्यन्त महत्वपूर्ण टिप्पणी की। बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के ही शब्दों में:-
"महोदय, मेरे मित्र ने मुझे बताया कि मैंने संविधान को बनाया है। परन्तु मैं पूरी तरह से यह कहने के लिये तैयार हूँ कि मै ही वह पहला व्यक्ति होऊंगा जो इसे (संविधान) जलायेगा। मैं इसे (संविधान) नहीं चाहता। यह किसी के भी अनुकूल नहीं है। परन्तु जो कुछ भी हो यदि लोग चाहते हैं कि आगे बढ़ा जाए, उनको यह नहीं भूलना चाहिये कि यहाँ बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक हैं, और वे (बहुसंख्यक) सामान्यतः यह कह कर अल्पसंख्यकों को उपेक्षित नहीं कर सकते ‘ओह, नहीं! तुमको मान्यता देना लोकतंत्र की हानि करना है।‘ मैं चाहूंगा कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों को हानि पंहुचाना सबसे बड़ी हानि होगी।"14
              बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने दिनांक 19 मार्च 1955 को संविधान (चतुर्थ संशोधन) विधेयक, 1954 पर बोलते हुए इसके कारण की व्याख्या की। बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के ही शब्दों में:-
"तुम उसका उत्तर चाहते हो? मैं तुमको यहाँ उत्तर दूंगा।
मेरे मित्र ने कहा कि पिछली बार जब मैंने कहा था, मैं संविधान को जलाना चाहता हूँ। ठीक है, जल्दी में मैंने इसके कारण की व्याख्या नहीं की थी। अब मेरे मित्र ने मुझे यह अवसर दिया है, मैं सोचता हूं मैं कारण बताऊँ। कारण है कि : हम ईश्वर को आने और वास करने के लिये एक मन्दिर का निर्माण करते हैं, परन्तु इससे पहले कि ईश्वर उसमें स्थापित हो, यदि शैतान उस पर कब्ज़ा कर ले, तब हम इसके अतिरिक्त क्या कर सकते हैं कि उस मन्दिर को नष्ट कर दें? हम यह नहीं चाहते कि इस पर असुरों द्वारा कब्जा कर लिया जाए। हम यह चाहेंगे कि इस पर देवों का अधिकार हो। यही कारण है कि मैंने कहा मैं इसे (संविधान) जलाना अधिक पसन्द करूँगा।"15
               उपरोक्त कारण को बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने संविधान सभा में दिनांक 26 नवम्बर 1949 को दिए अपने भाषण में ही व्यक्त कर दिया था:-
"अतः इस संविधान के गुणों के संबन्ध में मैं कुछ नहीं कहूंगा। क्योंकि मैं समझता हूँ कि संविधान चाहे जितना भी अच्छा हो यदि इसे कार्यान्वित करने वाले लोग बुरे हैं तो निस्संदेह बुरा हो जाता है। संविधान का लागु किया जाना पूर्णतया संविधान के प्रकार पर निर्भर नहीं करता है। संविधान केवल विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे अंगों के लिये व्यवस्था कर सकता है। राज्य के इन अंगों का क्रियान्वयन जिन पर निर्भर करता है वह जनता और उसके द्वारा स्थापित किये गए राजनीतिक पक्ष हैं जो उसकी इच्छा और नीति पालन करने के साधन होते हैं। यह कौन कह सकता है कि भारत की जनता और उसके राजनीतिक पक्ष किस प्रकार का व्यवहार करेंगे?"16
              बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने संवैधानिक रीतियों से आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति पर बल दिया था परन्तु इन साधनों के विफल होने की स्थिति में उन्होंने क्रान्ति की संभावना को भी मान्यता दी है। संविधान सभा में दिनांक 26 नवम्बर 1949 को दिए गए भाषण में उन्होंने कहा:-
"आर्थिक तथा सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये जब कोई मार्ग न रहे तब तो इन असंवैधानिक रीतियों (सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह) का अपनाना बहुत कुछ रूप में न्यायपूर्ण हो सकता है। पर जब संवैधानिक रीतियों का मार्ग खुला है तो इन असंवैधानिक रीतियों का अपनाना कभी न्यायसंगत नहीं हो सकता है।"17
               अब हम समझ सकते हैं कि जब बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने संविधान को जलाने की बात की थी तब उन्होंने कितनी दूरदृष्टि दिखाई थी क्योंकि आज जब हम देश भर में शोषितों पर निर्मम अत्याचार होते देखते हैं तो संविधान को विफल करने के मनुवादियों के षडयन्त्रों को समझ सकते हैं जिनका आकलन बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने 1953 में ही कर लिया था।
               पूना पैक्ट और सरकारी सेवाओं में संवैधानिक आरक्षण का लाभ लेकर शोषित जातियों में ऐसे टुकड़खोरों की फ़ौज पैदा हुई जो शोषित वर्ग को भूलकर केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति में लग गये। इसी से दुखी होकर बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने 18 मार्च 1956 को उत्तर प्रदेश के आगरा में दिये भाषण में कहा था:-
"मुझे पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया है, मुझे उम्मीद थी कि हमारे शिक्षित एवं उच्च शिक्षित लोग पढ़-लिख कर मेरे कार्य में हाथ बटाएँगे परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मैं देख रहा हूँ कि मेरे चारों तरफ पढ़े-लिखे क्लर्कों की भीड़ इकट्ठी हो गई है जो सिर्फ अपना पेट पालने में लगी हुई है। मैंने आशा की थी कि अनुसूचित जातियों के शिक्षित लोग अपने दबे-कुचले भाईयों की सेवा करेंगे। पर इसके उलट ही मुझे यहाँ बाबुओं की भीड़ देखकर निराशा हुई है।
जब आपको ऊंची नौकरी मिल जायें तो अपने भाईयों को कभी न भूलें। आप लोगों को जन आंदोलन का लाभ मिला है इसलिये आप अपने भाईयों की सेवा करते रहें।"18
               इस प्रकार बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के सपनों को पूरा करने की जिम्मेदारी शिक्षित लोगों पर थी परन्तु उन्होंने स्वयं को शोषित वर्ग से पृथक कर लिया। इसके परिणामस्वरूप उनको स्वयँ भी हानि हो रही है परन्तु इसे वे लोग समझ नहीं रहे हैं। आज मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के कारण अप्रत्यक्ष रूप से संवैधानिक आरक्षण समाप्त किया जा रहा है। जिस कारण शोषित जातियों के शिक्षित समूह का भविष्य भी संकट में पड़ गया है। यदि आरक्षण का लाभ लेकर कोई सरकारी नौकरी में था या है तो भी उसकी अगली पीढ़ियों के लिये नौकरी प्राप्त करना संकटपूर्ण हो गया है। मनुवादी-पूंजीवादी सरकार धीरे-धीरे आरक्षण समाप्त कर रही है परन्तु अपने शोषित समाज से कटा होने के कारण शोषित जातियों का यह अल्पसंख्यक शिक्षित समूह प्रभावशाली विरोध भी नहीं कर पा रहा है। इसी तरह शोषित जातियों के अधिकांश लोगों को चाहे आरक्षण समाप्त भी हो जाए तो भी उन पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ने वाला क्योंकि वे तो शिक्षा ही प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं तो आरक्षण का लाभ लेकर नौकरी कैसे प्राप्त करेंगे। उन्हें तो मजदूरी ही करनी पड़ रही है। जिस शिक्षित समूह को अपने शोषित समुदाय के लोगों के लिये कार्य करना चाहिये था वो अपने ही स्वार्थों की पूर्ति में लिप्त हो गया। इस प्रकार शिक्षित लोगों का अति सूक्ष्म समूह अपने ही शोषित वर्ग के अधिकांश लोगों से पृथक हो गया है। आरक्षण का लाभ लेकर उसे शोषित समुदायों के हितों का प्रतिनिधित्व करना चाहिये था, उनकी समस्याओं को शासन के समक्ष रखना चाहिये था और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़नी चाहिये थी परन्तु वो अपना ही पेट ठूंसने में व्यस्त हो गया और मनुवादी लोग बहुसंख्यक शोषितों पर अत्याचार करते रहे। परन्तु जब मनुवादियों ने इस शिक्षित अल्पसंख्यक समूह के हितों पर चोट करनी आरम्भ की तो यह शिक्षित समूह कुछ नहीं कर पा रहा है क्योंकि इसके साथ कोई नहीं आ रहा है।
              आज देश की कुल निर्धन जनसंख्या में अधिकांश लोग इन्ही शोषित जातियों से हैं और यह संख्या निरन्तर बढ़ रही है। आरक्षण का लाभ लेकर जिनकी आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी हो गयी थी उनकी भी अगली पीढ़ियां बेरोजगारी के कारण बड़ी शीघ्रता से पुनः निर्धनों में सम्मिलित हो रही हैं। इस प्रकार अपने अधिकारों को प्राप्त करने हेतु मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था से प्रभावशाली ढंग से लड़ने के लिये शोषित वर्ग के इस विभाजन को समाप्त करना ही होगा। इसके लिये शोषित जातियों के शिक्षित और आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति के लोगों को साथ लेकर हमें शोषित जातियों के अशिक्षित, निर्धन, मजदूर, बेरोजगार लोगों को संगठित करना होगा और उनकी मांगों को प्रमुखता से उठाना होगा। जब शोषित जातियों के शिक्षित और अशिक्षित निर्धनों के हित एकाकार हो जाएंगे और तब मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था का उन्मूलन करने हेतु परिस्थितियां निर्मित हो जाएंगी। यहाँ मैं कहना चाहूंगा कि शोषित जातियों का शिक्षित समूह अत्यन्त स्वार्थी और पेट से सोचने वाले बन चुका है इसलिये इस समूह के लोग जल्दी साथ नहीं आयेंगे और यदि आएंगे भी तो उनमें से अधिकांशतः अपने स्वार्थवश ही आएंगे परन्तु शोषित जातियों के बहुसंख्यक निर्धन, अशिक्षित समूह के पास खोने के लिये कुछ नहीं है और यही समूह प्रतिबध्द रूप से साथ आएगा। परन्तु इसके लिये बहुत कार्य करना होगा तथा इनमें स्वाभिमान और साहस पैदा करना होगा। यह कटु सत्य है कि शोषित जातियों के अधिकांश लोग पेट से सोचते हैं परन्तु यह कोई लज्जाजनक बात नहीं है क्योंकि इसी कारण लेनिन रूस में परिवर्तन लाने में सफल हो सके, बल्कि लज्जाजनक बात यह है कि सदियों की मानसिक और शारीरिक दासता के कारण यह समूह संघर्ष करना भूल गया है। इसलिये टुकड़ों पर जीने का आदी हो गया है और यह स्थिति शोषित जातियों के अधिकांश शिक्षित लोगों की भी है। इसी कारण विभिन्न मनुवादी-पूंजीवादी राजनीतिक दलों में सदस्य, सांसद और विधायक बने शोषित जातियों के लोग मनुवादियों-पूंजीवादियों के तलवे चाट रहे हैं। यही स्थिति विभिन्न सरकारी नौकरियों में कार्यरत शोषित जातियों के अधिकांश लोगों की भी है। इस प्रकार हमें शोषितों को संघर्ष करना सिखाना है इसके लिये उनमें स्वाभिमान और साहस पैदा करना है ताकि वो भीख मांगना छोड़ कर अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करें।
              इस तरह कार्य करने पर ही बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के सपनों का भारत अर्थात समतामूलक और शोषणमुक्त भारत बन सकेगा। इसकी जिम्मेदारी शोषित जातियों पर ही है क्योंकि इन्ही लोगों से शोषित वर्ग के अधिकांश भाग का निर्माण भी होता है।
                                               -------- मैत्रेय
                                                                   
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सन्दर्भ और टिप्पणियाँ
1.राज्य और अल्पसंख्यक (States And Minorities), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 19 से 21 तक.
2.राज्य और अल्पसंख्यक (States And Minorities), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 33.
3.राज्य और अल्पसंख्यक (States And Minorities), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 34.
4.राज्य और अल्पसंख्यक (States And Minorities), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 34.
5.राज्य और अल्पसंख्यक (States And Minorities), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 36.
6.राज्य और अल्पसंख्यक (States And Minorities), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 35-36.
7.राज्य और अल्पसंख्यक (States And Minorities), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 38.
8.राज्य और अल्पसंख्यक (States And Minorities), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 38.
9.राज्य और अल्पसंख्यक (States And Minorities), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 23.
10.राज्य और अल्पसंख्यक (States And Minorities), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 26.
11.राज्य और अल्पसंख्यक (States And Minorities), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ- 29.
12.संविधान सभा में डॉ0 अम्बेडकर, संकलन- परिनिब्बुत्त श्याम सिंह, पृष्ठ- 174, तृतीय संस्करण 2012, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली।
13.बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा संविधान सभा में दिनांक 26 नवम्बर 1949 को दिये गए भाषण का अंश, संविधान सभा में डॉ0 अम्बेडकर, संकलन कर्ता- परिनिब्बुत्त श्याम सिंह, सम्यक प्रकाशन, तृतीय संस्करण- 2012, पृष्ठ- 196.
14.Baba Saheb Dr. B. R. Ambedkar in the Rajya Sabha on 2 September 1953,
Dr. Baba Saheb Ambedkar writings and speeches, volume of 15 Page-862-63, Second Edition, 2008, Publisher- Higher and Technical Education Department, Government of Maharashtra.
15.Baba Saheb Dr. B. R. Ambedkar in the Rajya Sabha on 19 March 1955,
Dr. Baba Saheb Ambedkar writings and speeches, volume of 15 Page-949, Second Edition, 2008, Publisher- Higher and Technical Education Department, Government of Maharashtra.
16.संविधान सभा में डॉ0 अम्बेडकर, संकलन- परिनिब्बुत्त श्याम सिंह, पृष्ठ- 189, तृतीय संस्करण 2012, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली।
17.संविधान सभा में डॉ0 अम्बेडकर, संकलन- परिनिब्बुत्त श्याम सिंह, पृष्ठ- 195, तृतीय संस्करण 2012, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली।
18.बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा 18 मार्च 1956 को आगरा, उत्तर प्रदेश में दिये गए भाषण का अंश, डॉ0 अम्बेडकर के प्रेरक भाषण- भाग-1, अनुवाद एवं संकलन- विनय कुमार वासनिक, सम्यक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ- 132

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