Monday, February 18, 2019

क्या करें।

             प्रायः तथाकथित दलित हितचिंतक, दलित बुद्धिजीवी और दलित राजनीतिज्ञ जब समाज सुधार या समाज परिवर्तन की बात करते हैं तो वे तथाकथित हिन्दू धर्म, मनुवाद, वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था की केवल निंदा या आलोचना तक ही सीमित रहते हैं। इस प्रकार वे शोषितों के केवल सामाजिक शोषण की बात करते हैं और उनके सामाजिक शोषण का उन्मूलन करने हेतु ही विचार करते हैं। परन्तु उनके विचार और सुझाव शोषितों के सामाजिक शोषण का उन्मूलन करने में भी विफल रहते हैं।
             ऐसा क्यों होता है? प्रस्तुत लेख में इसी विषय पर विचार किया गया है। जब वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का अध्ययन किया जाता है तो ज्ञात होता है कि ब्राह्मणों ने सर्वप्रथम समाज को वर्ण व्यवस्था के अनुसार बांटा तत्पश्चात उन्होंने वर्ण व्यवस्था से जाति व्यवस्था का सृजन किया। अतः ब्राह्मणों ने समाज को विखंडित किया। तथाकथित हिन्दू धर्म और राज्य सत्ता का उपयोग करके ब्राह्मणों ने समाज के उत्पादन साधनों और सारी संपत्ति पर अपना और अपने सहयोगियों अर्थात ब्राह्मणवादियों या मनुवादियों का प्रभुत्व स्थापित कर दिया तथा समाज में अपने लिए लाभदायक स्थिति निर्मित कर ली। लेकिन क्योंकि ब्राह्मण समुदाय शोषित जातियों के शोषण पर ही निर्भर रहा इसलिये उन्होंने इन शोषित जातियों को समाज में निम्न स्तर पर बनाये रखने और अपनी प्रमुखता को स्थायी रखने के लिए भी तथाकथित हिन्दू धर्म और राज्य सत्ता का आश्रय लिया। इस कार्य में सहयोग के लिये ब्राह्मणों ने 'श्रेणीगत असमानता (Graded Inequality)' के सिद्धांत को जन्म दिया। जिसका अर्थ है कि वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था में सर्वोच्च स्तर पर ब्राह्मण होगा तथा अन्य वर्ण और जातियाँ भले ही ब्राह्मणों से निम्न स्तर पर होंगी लेकिन वे निम्नता के समान स्तर पर नहीं होंगी बल्कि उनमें भी श्रेणीक्रम होगा। इस प्रकार जाति व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान पर ब्राह्मण जातियाँ और निम्नतम स्थान पर अनुसूचित जातियाँ (जिन्हें अस्पृश्य जातियाँ भी कहा जाता है) होती हैं। अन्य जातियाँ इन दोनों सीमाओं के मध्य में आती हैं। इस प्रकार जाति व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य जातियाँ उनसे निम्न स्तर पर हैं किंतु वे निम्नता के समान स्तर पर नहीं हैं। इसी कारण जाति व्यवस्था से सभी जातियाँ समान रूप से पीड़ित भी नहीं हैं। इसी श्रेणीगत असमानता के सिद्धांत के अनुसार आर्थिक संसाधनों और सम्पत्ति का भी असमान वितरण किया गया। अनुसूचित जातियों को शिक्षा प्राप्त करने और सम्पति अर्जित करने के अधिकार से वंचित तो किया ही गया इसके साथ ही साथ उनको मानवीय स्तर से भी नीचे गिराया गया। उनको मानसिक दास बना दिया गया जिससे उनकी शारीरिक दासता स्थाई हो जाए। इस कार्य में ब्राह्मणों ने अन्य जातियों से भी सहयोग लिया और इसके बदले में उन जातियों को लाभ मिला। ब्राह्मणों द्वारा अपनी इस सर्वोच्च स्थिति को बनाये रखने हेतु प्रत्येक उपाय, प्रत्येक साधन, प्रत्येक छल-प्रपंच और धोखाधड़ी को अपनाया गया। ब्राह्मणों ने सदैव अपने स्वार्थों को समाज, राज्य और देश हित से ऊपर रखा। इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मण और उनके सहयोगी अर्थात मनुवादी वर्ग समाज का प्रभुत्वशाली और सत्ताधारी वर्ग बन गया। जबकि अनुसूचित जातियाँ और अन्य शोषित लोग उत्पादक समूह होते हुए भी समाज का शोषित वर्ग बना दिये गये। यही स्थिति वर्तमान में है।
            शोषित जातियां ही उत्पादक वर्ग या श्रमिक वर्ग का महत्वपूर्ण और अधिकांश भाग हैं। शोषित जातियों के खून-पसीने से ही मनुवादी वर्ग की अय्याशियां चल रही हैं। इससे स्पष्ट ही है कि वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था द्वारा मनुवादी वर्ग सदियों से शोषित जातियों का आर्थिक शोषण भी कर रहा है। इसी कारण बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि जाति व्यवस्था केवल सामाजिक व्यवस्था ही नहीं है बल्कि यह अस्पृश्य जातियों के शोषण की आर्थिक व्यवस्था भी है।
            इसी तथ्य की खोज करते हुए महान क्रान्तिकारी दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने कहा है कि:-
"अपने जीवन के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्धों में बंधते हैं, जो अपरिहार्य एवं उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये सम्बन्ध उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं। इन उत्पादन सम्बन्धों का पूर्ण योग ही समाज का आर्थिक ढांचा है- वह असली बुनियाद है, जिस पर कानून और राजनीति का ऊपरी ढांचा खड़ा होता है और जिसके अनुकूल ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं। भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्रक्रिया को निर्धारित करती है।"1
            मार्क्स के कथन से स्पष्ट है कि कोई भी सामाजिक व्यवस्था वास्तव में उस समाज की आर्थिक व्यवस्था की बुनियाद पर ही टिकी होती है। अतः कोई विशेष सामाजिक व्यवस्था तब तक परिवर्तित नहीं हो सकती जब तक कि उस सामाजिक व्यवस्था की बुनियाद अर्थात आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन न हो।
            अब यहां यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि भारत में सैकड़ों वर्ष बीत जाने के पश्चात भी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का अस्तित्व क्यों विद्यमान है? अर्थात यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि पिछले सैकड़ों वर्षों में भारतीय आर्थिक व्यवस्था में अर्थात उत्पादन सम्बन्धों में क्या परिवर्तन हुए और परिणाम स्वरूप वर्ण व्यवस्था तथा जाति व्यवस्था में क्या परिवर्तन हुए हैं। तो सर्वप्रथम यह जान लेना चाहिए कि भारतीय समाज में ऊपरी तौर पर भले ही आर्थिक व्यवस्था में कुछ परिवर्तन हुए हैं और पहले की पिछड़ी हुई कृषि आधारित सामन्तवादी अर्थव्यवस्था के साथ ही पिछड़ी हुई पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विकास भी हुआ है परन्तु यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि समाज में वर्गों के बीच के उत्पादन साधनों के स्वामित्व में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। जो वर्ग सैकड़ों वर्षों पहले उत्पादन साधनों का स्वामी और परिणाम स्वरूप प्रभुत्वशाली वर्ग था, आज भी वही वर्ग उत्पादन साधनों का स्वामी और परिणाम स्वरूप प्रभुत्वशाली वर्ग बना हुआ है। इसी कारण यद्यपि आर्थिक व्यवस्था में कुछ परिवर्तन हुए किन्तु सामाजिक व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुए। यही कारण है कि आज भी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का अस्तित्व बना हुआ है और आज भी 'मनुस्मृति' के विधान लागू हैं।
           जैसा कि ऊपर बताया गया है मनुवादियों ने वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के द्वारा शोषित जातियों को बलपूर्वक शिक्षा और सम्पत्ति संचय के अधिकार से वंचित रखा तथा शोषित जातियों को उत्पादक वर्ग होते हुए भी वंचित, विपन्न और दास बनाये रखा, जबकि मनुवादी वर्ग शोषक वर्ग होने के कारण, परजीवी और निठल्ला होते हुए भी उत्पादन साधनों और फलस्वरूप सारी संपत्ति का स्वामी बन गया। इसी कारण समय के साथ समाज की आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन होने के बावजूद भी मनुवादी वर्ग ही उत्पादन साधनों का स्वामी बना रहा। वास्तव में नए उत्पादन साधनों के विकास के कारण आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन होने पर मनुवादी वर्ग ने वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था में अपनी लाभदायक स्थिति से फायदा उठाते हुए पुराने उत्पादन साधनों के साथ ही उन नए उत्पादन साधनों पर भी स्वामित्व स्थापित कर लिया। इसी सुविधजनक स्थिति के कारण रणनीति के तहत मनुवादियों ने समाज में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये सदैव तात्कालिक आर्थिक परिवर्तनों के साथ स्वयं को अनुकूलित कर लिया। जब आर्थिक व्यवस्था  सामंतवादी थी तब मनुवादियों ने सामंतवादी व्यवस्था में अनुकूलन करके शोषित जातियों का शोषण किया और अब जबकि आर्थिक व्यवस्था पूंजीवादी रूप ले रही है तो यह मनुवादी वर्ग अब पूंजीवादी व्यवस्था में अनुकूलन करके मनुवादी व्यवस्था को सुरक्षित रखे हुए है और शोषित जातियों का खून चूस रहा है। इस प्रकार वर्तमान समय में मनुवादी वर्ग ने पूंजीवादी व्यवस्था में अनुकूलन कर लिया है। इस प्रकार वर्तमान शोषक वर्ग को मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग भी कहा जा सकता है।
             पूंजीवादी व्यवस्था श्रमिक के शोषण पर टिकी होती है। पूंजीवादी व्यवस्था को न्यूनतम मूल्य पर श्रमशक्ति की आवश्यकता होती है जिससे वह अधिकतम अतिरिक्त मूल्य हड़प सके। इसीलिये पूंजीपतियों को अस्थायी नियुक्ति पर श्रमिक और अत्यधिक मात्रा में बेरोजगारी की स्थिति चाहिए होती है। अस्थायी नियुक्ति के श्रमिकों को पूँजीपति जब चाहे तब काम से निकाल सकता है और अत्यधिक बेरोजगारी की स्थिति होने के कारण उनको सस्ती दर पर श्रमशक्ति बहुतायत में उपलब्ध रहती है। भारतीय समाज में श्रमिकों की अधिकांश संख्या शोषित जातियों से ही आती है। अब मनुवादी व्यवस्था और उसके उपकरणों वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, अस्पृश्यता, निर्धनता आदि द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था को दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण लाभ होते हैं। पहला तो यह कि सस्ती दर पर शोषित जातियों के श्रमिकों की अबाध आपूर्ति होती रहती है और दूसरा लाभ जो अधिक महत्वपूर्ण है यह है कि यह शोषित जातियों में एकता उत्पन्न होने और उनके द्वारा संगठित होकर अपने शोषण के विरुद्ध संघर्ष करने को  अत्यधिक दुष्कर बनाती है।
            वास्तव में जाति व्यवस्था 'श्रमिकों का भी श्रेणीगत विभाजन' कर देती है। इसी का उल्लेख करते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि:-
"यदि श्रम का विभाजन प्रत्येक सभ्य समाज का एक अनिवार्य लक्षण है तो यह दलील दी जाती है कि जाति प्रथा में कोई बुराई नहीं है। इस विचार के विरुद्ध पहली बात यह है कि जाति प्रथा केवल श्रम का विभाजन नहीं है, श्रमिकों का विभाजन भी है। इसमें संदेह नहीं है कि सभ्य समाज को श्रम का विभाजन करने की आवश्यकता है। किसी भी सभ्य समाज में श्रम के विभाजन के साथ इस प्रकार के पूर्णतः अलग वर्गों में श्रमिकों का अप्राकृतिक विभाजन नहीं होता। जाति प्रथा मात्र श्रमिकों का विभाजन नहीं है, बल्कि यह श्रम के विभाजन से बिल्कुल भिन्न है। यह एक श्रेणीबद्ध व्यवस्था है, जिसमें श्रमिकों का विभाजन एक के ऊपर दूसरे क्रम में होता है। किसी भी अन्य देश में श्रम के विभाजन के साथ श्रमिकों का इस प्रकार का क्रम नहीं होता। जाति प्रथा के विचार के विरुद्ध एक तीसरा तथ्य भी है। श्रम का यह विभाजन स्वतः नहीं होता। यह स्वाभाविक अभिरुचि पर आधारित नहीं है।"2
             महान क्रान्तिकारी दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने पूंजीवाद के आरम्भिक समय में यूरोपीय समाजों में पूंजीवादी वर्ग या बुर्जुआ वर्ग द्वारा निभाई गयी क्रान्तिकारी भूमिका का भी उल्लेख किया है। परन्तु भारतीय समाज के पूंजीवादी वर्ग ने ऐसी कोई भूमिका नहीं निभाई क्यों? इसका उत्तर यूरोपीय समाजों और भारतीय समाज के पूंजीवादी वर्ग के 'मूल' में छिपा है। यूरोपीय समाज का पूंजीवादी वर्ग (बुर्जुआ वर्ग) सामन्ती समाज के भूदास (Serf) वर्ग अर्थात तत्कालीन शोषित वर्ग से विकसित हुआ है।
            महान क्रान्तिकारी दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने पूंजीवादी वर्ग या बुर्जुआ वर्ग के विकास के विषय में कहा है कि:-
"मध्य युग के भूदासों (Serfs) से प्रारम्भिक शहरों के अधिकारपत्र प्राप्त बर्गर (स्वतंत्र नागरिक) पैदा हुए थे। इन्हीं बर्गरों से आगे चलकर प्रथम बुर्जुआ तत्वों का विकास हुआ।"3
             इसी कारण यूरोपीय समाजों में बुर्जुआ वर्ग ने सामन्तवादी शोषण, विशेषाधिकारों और घृणित पुरातन प्रथाओं को नष्ट करने में प्रमुख भूमिका निभाई। परन्तु भारतीय समाज में मनुवादी व्यवस्था के कारण मनुवादी वर्ग ही उत्पादन साधनों और फलस्वरूप सम्पत्ति का स्वामी वर्ग बना रहा जबकि शोषित जातियों को बलपूर्वक शिक्षा, उत्पादन के साधनों पर अधिकार और फलस्वरूप सम्पत्ति संचय से वंचित रखा गया। इसलिए जो मनुवादी वर्ग सामन्तवादी आर्थिक व्यवस्था में उत्पादन साधनों का स्वामी वर्ग था वही मनुवादी वर्ग पूंजीवादी व्यवस्था का विकास होने पर भी उत्पादन साधनों का स्वामी बना रहा अर्थात यद्यपि आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन हुआ परन्तु उत्पादन साधनों के स्वामी वर्ग में परिवर्तन नहीं हुआ। इसी कारण यूरोपीय समाजों में तो पूंजीवादी वर्ग ने आरम्भ में क्रान्तिकारी भूमिका निभाई थी परन्तु भारतीय समाज में पूंजीवादी वर्ग ऐसा करने के लिये अनिच्छुक और अक्षम था। परिणाम स्वरूप पूंजीवादी व्यवस्था के विकास के बावजूद भी अर्थात आर्थिक व्यवस्था परिवर्तित होने के बावजूद भी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का अस्तित्व बना हुआ है।
           यहीं पर उन तथाकथित मनुवादी बुद्धिजीवियों के खोखले विचारों का उत्तर भी मिल जाता है जो जानबूझकर और कुटिलतापूर्वक यह कहते रहते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के विकास के कारण वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का उन्मूलन हो जाएगा। जबकि उपरोक्त विश्लेषण से यह सच्चाई सामने आती है कि पूंजीवादी व्यवस्था में भी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था को बनाये रखा जाएगा, क्योंकि ऐसा करना मनुवादी वर्ग अर्थात उत्पादन साधनों के स्वामी वर्ग के हितों के अनुकूल है।
            यहीं पर मनुवादियों के सगे भाई तथाकथित साम्यवादी ठगों का सैद्धांतिक दिवालियापन भी सामने आ जाता है, जो शोषित जातियों को भ्रमित करके ठगने के लिये कहते रहते हैं कि "वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के उन्मूलन से सम्बंधित प्रश्नों पर चुप्पी साधे रहो और मनुवादी शोषण को चुपचाप सहन करते हुए उस समय की प्रतीक्षा करो जब स्वर्ग से अवतरित तथाकथित क्रान्तिकारी सर्वहारा लोग चमत्कार के द्वारा बहुप्रतीक्षित क्रान्ति करके पूंजीवादी व्यवस्था का उन्मूलन करेंगे और फलस्वरूप तुम्हारे शोषण का भी उन्मूलन हो जाएगा!"
           लेकिन ये तथाकथित साम्यवादी लोग निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर नहीं देते:-
(1) वर्तमान पूंजीवादी वर्ग अर्थात उत्पादन साधनों का स्वामी वर्ग कौन सा सामाजिक समुदाय है?
(2) यह पूंजीवादी वर्ग पूंजीवादी व्यवस्था से पहले की आर्थिक व्यवस्था में किस वर्ग से विकसित हुआ है?
(3) सर्वहारा वर्ग वास्तव में कौन सा सामाजिक समुदाय है?
(4) सामान्यतः ऐसा क्यों है कि अधिकांश तथाकथित उच्च जातियाँ सदियों से उत्पादन साधनों की स्वामी बनी हुईं हैं और अधिकांश शोषित जातियाँ उत्पादन साधनों से वंचित रही हैं?
(5) वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रश्न का समाधान किये बिना ही हजारों जातियों में बंटे शोषित वर्ग अर्थात सर्वहारा वर्ग को तथाकथित साम्यवादी लोग इस स्तर तक संगठित करने में किस तरह सफलता प्राप्त करेंगे कि वे लोग क्रान्ति को सम्भव बनायेंगे?
            इन प्रश्नों का ये तथाकथित साम्यवादी कोई उत्तर नहीं देते। क्योंकि वे जानते हैं कि यूरोपीय समाजों की तरह भारतीय समाज का वर्तमान पूंजीवादी वर्ग कोई ऐसा वर्ग नहीं है जो सामन्तवादी आर्थिक व्यवस्था में भूदासों की तरह के किसी शोषित वर्ग से विकसित हुआ हो और जिसने उत्पादन साधनों के तत्कालीन स्वामी सामन्तवादी वर्ग को हटाकर उत्पादन साधनों का स्वामित्व और सत्ता प्राप्त की हो, बल्कि वही मनुवादी वर्ग है जो सामन्तवादी आर्थिक व्यवस्था में उत्पादन साधनों का स्वामी था और वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था का विकास होने पर भी उत्पादन साधनों का स्वामी बना हुआ है।
            जबकि समाज में वर्गों के बीच के संघर्ष के विषय में महान क्रान्तिकारी दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने कहा है कि:-
"अभी तक आर्विभूत समस्त समाज का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है।
स्वतंत्र मनुष्य और दास, पेट्रिशियन और प्लेबियन, सामन्ती प्रभु और भूदास, शिल्प-संघ का उस्ताद (गिल्ड मास्टर)- कारीगर और मजदूर- कारीगर- संक्षेप में उत्पीड़क और उत्पीड़ित बराबर एक-दूसरे का विरोध करते आये हैं। वे कभी छिपे, तो कभी प्रकट रूप से लगातार एक-दूसरे से लड़ते रहे हैं, जिस लड़ाई का अंत हर बार या तो पूरे समाज के क्रान्तिकारी पुनर्गठन में, या संघर्षरत वर्गों की बर्बादी में हुआ है।
.......
आधुनिक बुर्जुआ समाज ने, जो सामन्ती समाज के ध्वंस से पैदा हुआ है, वर्ग विरोधों को खत्म नहीं किया। उसने केवल पुराने के स्थान पर नए वर्ग, उत्पीड़न की पुरानी अवस्थाओं के स्थान पर नई अवस्थाएं और संघर्ष के पुराने रूपों की जगह नए रूप खड़े कर दिये हैं।"4
            इससे स्पष्ट है कि जब वर्ग संघर्ष के फलस्वरूप एक वर्ग को हटाकर दूसरा वर्ग उत्पादन साधनों का स्वामी बनता है तो समाज का क्रान्तिकारी पुनर्गठन होता है। यदि ऐसा नहीं होता यानि एक वर्ग को हटाकर दूसरा वर्ग नहीं आता है तो भले ही किन्ही परिस्थितियों के कारण आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन हो जाएं किन्तु सामाजिक व्यवस्था में कभी भी कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं होगा। भारतीय समाज में यही स्थिति विद्यमान है। भारत में यद्यपि आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन हुआ किन्तु आज तक मनुवादी वर्ग ही उत्पादन साधनों का स्वामी बना रहा फलस्वरूप समाज में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं हुए और इसीलिए वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का अस्तित्व बना हुआ है।
            परन्तु तथाकथित साम्यवादी लोग मार्क्स की इस आधारभूत खोज की जानबूझकर अवहेलना करते हैं और यही इस बात का साक्ष्य है कि तथाकथित साम्यवादी वास्तव में मार्क्सवाद का मुखौटा लगाए हुए मनुवादी ही हैं।
            उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि इस परिस्थिति में यदि किसी तरह पूंजीवादी व्यवस्था के स्थान पर कोई अन्य आर्थिक व्यवस्था आ भी जाती है तो भी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का अनिवार्य उन्मूलन नहीं होगा, फलस्वरूप शोषित जातियों के शोषण का भी उन्मूलन नहीं होगा।
            तो प्रश्न उठता है कि सही कार्यदिशा कौन सी है?
           सही कार्य दिशा का उल्लेख भी स्वयं बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने ही किया है। बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने शोषितों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि:-
"मेरे दृष्टिकोण में इस देश के श्रमिकों को दो शत्रुओं का मुकाबला करना होगा। वे दो शत्रु हैं 'ब्राह्मणवाद (अर्थात मनुवाद) और पूंजीवाद'।"5
           स्पष्ट है कि शोषितों को मनुवाद और पूंजीवाद दोनों से लड़ना होगा तभी उनके शोषण का उन्मूलन सम्भव हो सकेगा। परन्तु यहां ध्यान देने की बात है कि बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने ‘ब्राह्मणवाद या मनुवाद’ को ‘पूंजीवाद’ से पहले स्थान दिया है। क्योंकि बाबा साहेब जानते थे कि ‘श्रमिकों के श्रेणीगत विभाजन’ की स्थिति में कभी भी क्रान्ति द्वारा पूंजीवाद का उन्मूलन नहीं किया जा सकता। इसलिये शोषितों को सर्वप्रथम ‘मनुवाद’ का उन्मूलन करने हेतु संघर्ष करने की आवश्यकता है। मनुवाद का उन्मूलन होने के साथ ही ‘श्रमिकों के श्रेणीगत विभाजन’ का भी उन्मूलन हो जाएगा। तत्पश्चात ही शोषित जातियों के बाहुल्य वाला श्रमिक वर्ग उत्पादन साधनों पर से मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग के स्वामित्व का उन्मूलन करने में सक्षम हो सकेगा।
            इसलिये शोषित जातियों के हितैषियों को तथाकथित हिन्दू धर्म, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था और मनुवाद की केवल निंदा या आलोचना तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये बल्कि इनके उन्मूलन हेतु बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा बताये गए विचारों को शोषित जातियों में प्रचारित भी करना चाहिये। जिससे शोषित जातियों में इनके उन्मूलन हेतु चेतना विकसित हो। इसके साथ ही वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था और मनुवाद का पूंजीवाद के साथ मिश्रण करके मनुवादी वर्ग द्वारा शोषित जातियों के किये जा रहे आर्थिक शोषण के विषय में भी शोषित जातियों को जागरूक करना चाहिए।
            इस तरह की कार्य दिशा से ही शोषितों के शोषण का उन्मूलन हो सकेगा। परन्तु इस संघर्ष में मनुवादियों के सगे भाई तथाकथित साम्यवादी ठगों से सावधान रहना भी आवश्यक है।
                                         ---------- मैत्रेय
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सन्दर्भ और टिप्पणियाँ
1.राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान (A Contribution to the Critique of Political Economy), कार्ल मार्क्स, मार्क्स-एंगेल्स साहित्य और कला,  प्रथम संस्करण जनवरी, 2006, पृष्ठ- 45, प्रकाशक:- राहुल फाउंडेशन, लखनऊ
और,
A Contribution to the Critique of Political Economy, Karl Marx, First Edition-2010, Page- 26, Publisher- Rahul Foundation, Lucknow.
2.जाति का उन्मूलन (The Annihilation of Caste), बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वांङमय, खण्ड-1, पांचवां संस्करण- 2013, पृष्ठ-66,
प्रकाशक:- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली
और,
Dr. Baba Saheb Ambedkar Writings And Speeches, Volume 1, Third Edition- 14th April 2016, Page- 47, Publisher:- Higher and Technical Education Department, Government of Maharashtra.
3.कयुनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र (Communist Manifesto), कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, संस्करण- जनवरी, 2010, पृष्ठ- 38, प्रकाशक:- राहुल फाउंडेशन, लखनऊ,
और,
Manifesto of the Communist Party, Karl Marx and Frederick Engels, Edition- March 2012, Page- 42, People's Publishing House, New Delhi.
4.कयुनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र (Communist Manifesto), कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, संस्करण- जनवरी, 2010, पृष्ठ- 37-38, प्रकाशक:- राहुल फाउंडेशन, लखनऊ,
और,
Manifesto of the Communist Party, Karl Marx and Frederick Engels, Edition- March 2012, Page- 40-41, People's Publishing House, New Delhi.
5.डॉ0 अम्बेडकर के भाषण, भाग 2, संस्करण 2009, पृष्ठ- 53, प्रकाशक:- गौतम बुक सेंटर, दिल्ली,
और Dr. Baba Saheb Ambedkar Writings and Speeches, Volume 17, Part 3, Edition- 4 October 2003, Page- 177, Punisher- Higher Education Department, Government of Maharashtra.

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