Thursday, May 14, 2020

शोषित वर्ग और तथाकथित न्याय (PART-1)


"शक्तिशाली की इच्छा ही न्याय है।"
-------------- थ्रेसीमेकस (0पू0 459- 0पू0 400)
'न्याय' के सम्बन्ध में उपरोक्त मत सोफिस्ट विचारधारा के यूनानी दार्शनिक थ्रेसिमेकस से व्यक्त किया था। वास्तव में 'न्याय' क्या है? इस प्रश्न का उत्तर सरलता से नहीं दिया जा सकता। इसके विषय में यही कहा जा सकता है कि 'न्याय' वह आदर्श है जिसे समाज प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार 'न्याय' निरपेक्ष नहीं होता बल्कि तात्कालीन समाज के स्वरुप के सापेक्ष होता है। समाज का स्वरुप ही उस आदर्श को निर्धारित करता है जिसे 'न्याय' कहा जाता है। इसलिये जब थ्रेसिमेकस ने यह कहा कि शक्तिशाली की इच्छा ही 'न्याय' है तो इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिये। वर्ग विभाजित शोषक समाज के आदर्श भी प्रभुत्वशाली वर्ग के ही हित में निर्धारित किये जाते हैं। इसलिये कोई समाज उस समाज के बहुसंख्यक सदस्यों को 'न्याय' के नाम पर क्या प्रस्तुत कर रहा है इसको जानने के लिये उस समाज का अध्ययन करना चाहिये।
भारतीय समाज की संरचना क्या है? हम सभी जानते हैं कि भारतीय समाज हजारों जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों में विभाजित है। भारत में वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के कारण विभिन्न जातियां खान-पान, रीति-रिवाजों और विवाह संबंधों में पृथकता की नीति का पालन करती हैं। भारत में अंतर्जातीय विवाहों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। विभिन्न जातियों के बीच कटुता पायी जाती है। इस प्रकार ब्राह्मणों ने सर्वप्रथम समाज को वर्ण व्यवस्था के अनुसार बांटा तत्पश्चात उन्होंने वर्ण व्यवस्था से जाति व्यवस्था का सृजन किया। अतः ब्राह्मणों ने समाज को विखंडित किया। तथाकथित हिन्दू धर्म और राज्य सत्ता का उपयोग करके ब्राह्मणों ने समाज के उत्पादन साधनों और सारी संपत्ति पर अपना और अपने सहयोगियों अर्थात ब्राह्मणवादियों या मनुवादियों का प्रभुत्व स्थापित कर दिया तथा समाज में अपने लिए लाभदायक स्थिति निर्मित कर ली। लेकिन क्योंकि ब्राह्मण समुदाय शोषित जातियों के शोषण पर ही निर्भर रहा इसलिये उन्होंने इन शोषित जातियों को समाज में निम्न स्तर पर बनाये रखने और अपनी प्रमुखता को स्थायी रखने के लिए भी तथाकथित हिन्दू धर्म और राज्य सत्ता का आश्रय लिया। इस कार्य में सहयोग के लिये ब्राह्मणों ने 'श्रेणीगत असमानता (Graded Inequality)' के सिद्धांत को जन्म दिया। जिसका अर्थ है कि वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था में सर्वोच्च स्तर पर ब्राह्मण होगा तथा अन्य वर्ण और जातियाँ भले ही ब्राह्मणों से निम्न स्तर पर होंगी लेकिन वे निम्नता के समान स्तर पर नहीं होंगी बल्कि उनमें भी श्रेणीक्रम होगा। इस प्रकार जाति व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान पर ब्राह्मण जातियाँ और निम्नतम स्थान पर अनुसूचित जातियाँ (जिन्हें अस्पृश्य जातियाँ भी कहा जाता है) होती हैं। अन्य जातियाँ इन दोनों सीमाओं के मध्य में आती हैं। इस प्रकार जाति व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य जातियाँ उनसे निम्न स्तर पर हैं किंतु वे निम्नता के समान स्तर पर नहीं हैं। इसी कारण जाति व्यवस्था से सभी जातियाँ समान रूप से पीड़ित भी नहीं हैं। इसी श्रेणीगत असमानता के सिद्धांत के अनुसार आर्थिक संसाधनों और सम्पत्ति का भी असमान वितरण किया गया। अनुसूचित जातियों को शिक्षा प्राप्त करने और सम्पति अर्जित करने के अधिकार से वंचित तो किया ही गया इसके साथ ही साथ उनको मानवीय स्तर से भी नीचे गिराया गया। उनको मानसिक दास बना दिया गया जिससे उनकी शारीरिक दासता स्थाई हो जाए। इस कार्य में ब्राह्मणों ने अन्य जातियों से भी सहयोग लिया और इसके बदले में उन जातियों को लाभ मिला। ब्राह्मणों द्वारा अपनी इस सर्वोच्च स्थिति को बनाये रखने हेतु प्रत्येक उपाय, प्रत्येक साधन, प्रत्येक छल-प्रपंच और धोखाधड़ी को अपनाया गया। ब्राह्मणों ने सदैव अपने स्वार्थों को समाज, राज्य और देश हित से ऊपर रखा। वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के कारण समाज में एकता और समरसता का अस्तित्व ही नहीं है। मनुवादी वर्ग वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था जनित इस पृथकता को बनाए रखने में ही अपने हित देखता है।
इसी कारण इन मनुवादियों ने 'न्याय' के रूप में जिस आदर्श को प्रस्तुत किया वह भी 'श्रेणीगत असमानता' पर आधारित और शोषक वर्ग के हित के अनुकूल ही है। इसको विस्तार से जानने के लिये मनुस्मृति का अध्ययन करना चाहिये। मैं पाठकों को इसकी एक झलक भर दिखाने के लिये मनुस्मृति से निम्नलिखित उदाहरण दे रहा हूँ:-
"येन केनचिदग्ड़ेन हिंस्याच्चेच्छ्रेष्ठमन्त्यजः।
छेत्तव्यं तत्तदेवास्य तन्मनोरनुशासनम्।।
8.279. निम्न कुल में उत्पन्न कोई भी मनुष्य यदि अपने से श्रेष्ठ वर्ण के मनुष्य के साथ मार पीट करे और उसे क्षति पहुंचाये, तब उसका वह अंग कटवा दिया जाए या क्षति के अनुपात में न्यूनाधिक अंग कटवा दिया जाए, यह मनु का आदेश है।"1
भारतीय समाज के घोर विषमतापूर्ण स्वरुप के कारण ही 4 नवम्बर 1948 को संविधान सभा में भारतीय संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते समय बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा था:-
"यद्यपि हर कोई यह मानता है कि किसी भी प्रजातंत्रात्मक संविधान के अनुसार शांतिपूर्वक कार्य चलाने के लिये 'संविधान सम्बंधी नैतिकता' को प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है, लेकिन इसी से सम्बंधित दो ऐसी बातें हैं, जिनकी ओर दुर्भाग्य से यथोचित ध्यान नहीं दिया जाता है। एक बात तो यह है कि अनुशासन के स्वरुप का संविधान के स्वरुप से निकट सम्बन्ध है। अनुशासन पद्धति संविधान के स्वरूप के साथ मेल खाने वाली और वैसी ही होनी चाहिये। दूसरी बात यह है कि संविधान के स्वरुप में बिना किसी प्रकार का परिवर्तन लाए भी यह पूरी तरह सम्भव है कि केवल शासन-व्यवस्था को बदलकर, संविधान को विकृत कर दिया जाए और उसे परस्पर विरोधी तथा उसके अपने उद्देश्य की सिद्धि में बाधक बना दिया जाए। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जहाँ के लोग 'संविधान सम्बंधी नैतिकता' की भावना से ओत-प्रोत हों- ऐसी भावना से, जिसकी बात माननीय ग्रोटे इतिहासज्ञ ने की है- वहीं हम यह खतरा मोल ले सकते हैं कि शासन की बातों को संविधान के अंतर्गत लें और उनके निश्चय करने का कार्य कानून बनाने वाली सभा पर छोड़ दें। प्रश्न यह है कि क्या हम यह मान कर चल सकते हैं कि 'संविधान सम्बंधी नैतिकता' सुप्रतिष्ठित है। 'संविधान सम्बंधी नैतिकता' कोई प्रकृति- सिद्ध भावना नहीं है। इसका अभ्यास करना होता है। हमें यह समझ लेना चाहिये कि हमारे लोगों को अभी इसे सीखना है। भारतीय मिट्टी भीतर से अप्रजातंत्रात्मक है, उसी पर ऊपर से प्रजातंत्रवाद की चाशनी चढ़ाई गई है।"2
वर्तमान समय में 'न्याय' के नाम पर शोषित वर्ग को क्या परोसा जा रहा है इसे जानने के लिये न्याय प्रदान करने वाले तंत्र अर्थात न्यायपालिका की संरचना के अध्ययन की भी आवश्यकता है। हमें यह देखना होगा कि क्या न्यायपालिका की संरचना में समाज के निर्बल समूहों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है?
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की वर्ष 2011 की रिपोर्ट ‘‘न्यायपालिका में आरक्षण (National Commission for Scheduled Castes A Report on Reservation in Judiciary)" में कहा गया है कि न्यायपालिका सामाजिक समानता तथा न्याय के उद्देश्यों को पूरा नहीं करती हैं। न्यायाधीश अपनी पसन्द-नापसन्द तथा सामाजिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर निर्णय करते हैं। न्यायपालिका का संगठन देखने से ज्ञात होता है कि न्यायाधीशों का चयन अधिकतर समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग से ही किया जा रहा है। केवल कुछ परिवारों के व्यक्ति ही उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश बनते रहे हैं। उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व अत्यन्त कम है। दिनांक 15 मार्च 2000 को संसद में प्रस्तुत करियामुण्डा रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न उच्च न्यायालयों में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व निम्नलिखित है:-
सारणी 13


क्र0सं0

उच्च न्यायालय

कुल कर्मचारियों की संख्या
अनुसूचित जातियों के कर्मचारी
अनुसूचित जनजातियों के कर्मचारी
संख्या
प्रतिशत
संख्या
प्रतिशत
1
इलाहाबाद
2583
-
-
-
-
2
आन्ध्र प्रदेश
1304
(231 अन्य पिछड़ा वर्ग)
106
8.12
9
0.69
3
बाम्बे
2171
238
10.96
23
1.69
4
कलकत्ता
563
38
6.75
8
1.42
5
दिल्ली
-
-
-
-
-
6
गुवाहाटी
462
41
8.87
37
8.00
7
गुजरात
685
60
8.76
43
6.28
8
हिमाचल प्रदेश
351
55
15.67
2
0.57
9
जम्मू व कश्मीर
354
22
6.22
11
3.11
10
कर्नाटक
1253
103
8.22
20
1.60
11
केरल
400
30
7.50
-
-
12
मध्य प्रदेश
1224
(271 अन्य पिछड़ा वर्ग)
48
3.92
21
1.72
13
मद्रास
1277
146
11.43
2
0.15
14
उड़ीसा
595
68
11.43
5
0.84
15
पटना
1151
115
10
49
4.25
16
पंजाब व हरियाणा
684
70
(अनु0जा0 $ अनु0जनजाति)
10.23
(अनु0जा0 $ अनु0जनजाति)


17
राजस्थान
933
42
4.50
5
0.54
18
सिक्किम
107
9
8.41
37
31.58

करियामुण्डा रिपोर्ट के अनुसार 1 जनवरी 1993 को 18 उच्च न्यायालयों की स्थिति देखने पर 12 उच्च न्यायालयों में अनुसूचित जाति का एक भी न्यायाधीश नहीं था तथा 14 उच्च न्यायालयों में अनुसूचित जनजातियों का एक भी न्यायाधीश नहीं था।4 दिनांक 1 मई 1998 की स्थिति के अनुसार उच्च न्यायालयों में 481 न्यायाधीशों में से अनुसूचित जातियों के केवल 15 न्यायाधीश यानि 3.1 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजातियों के केवल 5 न्यायाधीश यानि 1 प्रतिशत थे। उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व शून्य था (स्रोत:- उपरोक्त रिपोर्ट) वर्ष 2011 की स्थिति के अनुसार 21 उच्च न्यायालयों के कुल 850 न्यायाधीशों में से अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों, दोनों को मिलाकर इनके केवल 24 न्यायाधीश यानि 2.8 प्रतिशत थे। इन 21 उच्च न्यायालयों में से 14 उच्च न्यायालयो में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों का एक भी न्यायाधीश नहीं था। इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय के कुल 31 न्यायाधीशों में से अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व शून्य था (स्रोत:-उपरोक्त रिपोर्ट) न्यायाधीश संविधान और कानून के पालन की शपथ लेते हैं परन्तु उच्चतम न्यायालय तक संविधान के अनुच्छेद 16(4) अर्थात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नही है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध करने का प्रावधान है तथा अनुच्छेद 16(4) अर्थात् राज्य अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नही है, राज्य के अधीन सेवाओं में (किसी वर्ग या वर्गों के पदों पर अनुवर्ती वरिष्ठता सहित प्रोन्नति के मामलों में) आरक्षण के लिए उपबंध करेगा, का पालन नहीं कर रहा है। 67 प्रतिशत न्यायाधीश बिना कोई प्रतियोगी परीक्षा दिये केवल उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश के साधारण अनुमोदन पर ही वकीलों में से नियुक्त कर लिये जाते हैं। इस प्रकार नियुक्त न्यायाधीशों के आंकड़ों का विश्लेषण करने पर चयन प्रक्रिया के दोषपूर्ण तथा पक्षपातपूर्ण होने का पता चलता है। इस चयन प्रक्रिया द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों में से 1 प्रतिशत न्यायाधीश भी अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियो में से नहीं है।5 इस प्रकार 'मनुवादी आरक्षण' जनित भाई-भतीजावाद तथा दोषपूर्ण चयन प्रक्रिया के कारण न्यायपालिका में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व नगण्य है। वर्ष 1950 से 2018 तक के 68 वर्षों में अनुसूचित जातियों के केवल 4 न्यायाधीश, श्री  के0 रामास्वामी, श्री के0 जी0 बालकृष्णन, श्री बी0 सी0 राय तथा श्री 0 वरदराजन ही उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश बन सके हैं। वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश सहित कुल 25 न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय में कार्यरत हैं परन्तु उनमें से एक भी न्यायाधीश अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों से नहीं है। विधि मन्त्रालय के जनवरी 2018 के आंकड़ों के अनुसार 11 राज्यों के अधीनस्थ न्यायालयों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ज्ञात हुआ है कि अधीनस्थ न्यायालयों में अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व 14 प्रतिशत से भी कम, अनूसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व 12 प्रतिशत से कम तथा अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व 12 प्रतिशत से कम है। उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय विभिन्न मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर कार्यवाही करते हैं, परन्तु ये कभी भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर अत्याचारों तथा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के साथ घटित बलात्कार सामूहिक बलात्कार के मामलों पर स्वतः संज्ञान लेकर कार्यवाही नहीं करते। इसी तरह न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार से सभी लोग परिचित हैं। दिनांक 1-11-2017 के आंकड़ों के अनुसार 55259 वाद उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन थे।6 वर्ष 2016 के अंत तक कुल 24 उच्च न्यायालयों में 40.15 लाख वाद विचाराधीन थे तथा वर्ष 2016 के अंत तक 2.74 करोड़ वाद निचले न्यायालयों में विचाराधीन थे।7 इस प्रकार करोड़ों वाद विभिन्न न्यायालयों में विचाराधीन हैं। यह स्थिति न्यायाधीशों की अयोग्यता को प्रदर्शित करती है। यहाँ रोचक बात यह है कि यही न्यायपालिका  योग्यता  का ढिंढोरा पीटकर अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों को भारतीय संविधान प्रदत्त आरक्षण की आलोचना करती है। इसी योग्यता के ढिंढोरे को पीटकर न्यायपालिका विभिन्न न्यायालयों में न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया में अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व हेतु आरक्षण का प्रावधान नहीं करती हैं।
(क्रमशः)

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