Monday, May 4, 2020

योग्यता और घोर अयोग्य मनुवादी


बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के संघर्ष के फलस्वरूप शोषित जातियों को लोकसभा, राज्य विधानसभाओं, शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में संविधान प्रदत्त आरक्षण के विरोध में प्रायः ही मनुवादी वर्ग सदैव तथाकथित योग्यता का ढिंढोरा पीटता रहता है। यद्यपि मनुवादी वर्ग कभी भी इस तथाकथित योग्यता को परिभाषित नहीं करता। इस प्रकार सर्वप्रथम योग्यता के अर्थ को समझना अत्यावश्यक है। वास्तव में 'योग्यता' एक अमूर्त और सापेक्ष धारणा है। किसी कार्य को कुशलता पूर्वक करने में सक्षम होना ही योग्यता कहलाता है। इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी कार्य को अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक कुशलता पूर्वक करने में सक्षम है तो उसे समान कार्य करने वाले अन्य व्यक्तियों से अधिक योग्य कहा जायेगा। यद्यपि अन्य व्यक्ति भी जो उस कार्य को कुशलता पूर्वक कर लेते हैं योग्य कहलाएंगे। इसी प्रकार योग्यता किसी कार्य क्षेत्र विशेष के सापेक्ष होती है तथा निरपेक्ष योग्यता का कोई अस्तित्व नहीं है क्योंकि कोई भी व्यक्ति समस्त कार्यों को कुशलता पूर्वक करने में सक्षम नहीं हो सकता। अतः एक कुम्हार जो मिट्टी के बर्तन बनाता है या एक किसान जो श्रम करके फसल उपजाता है या एक प्रशासनिक उच्च अधिकारी या एक वैज्ञानिक जो अपने कार्य विशेष को कुशलता पूर्वक करने में सक्षम हैं, ये सभी योग्यता धारक हैं यद्यपि इनकी योग्यता के क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं। योग्यता का कोई ऐसा मापदंड नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि एक किसान जो श्रम करके फसल उपजाता है एक प्रधानमंत्री से कम योग्य है या एक प्रधानमंत्री एक किसान से अधिक योग्य है। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक किसान और एक प्रधानमंत्री के कार्य क्षेत्र भिन्न हैं। यह भी स्पष्ट है कि योग्यता अर्थात किसी कार्य को कुशलता पूर्वक करने में सक्षमता को अभ्यास द्वारा अर्जित किया जाता है। इस तरह यदि किसी व्यक्ति के पास इतने संसाधन उपलब्ध हों कि वो किसी कार्य क्षेत्र विशेष में योग्यता अर्जित कर सके तो स्पष्ट है कि वो व्यक्ति उस कार्य क्षेत्र में अयोग्य रह जायेगा। यही शोषित जातियों की स्थिति है। मनुवादी व्यवस्था के कारण शोषित जातियों को शिक्षा प्राप्त करने, सम्पत्ति अर्जित करने आदि मानवाधिकारों से वंचित कर दिया गया। इसके परिणामस्वरूप ही शोषित जातियों में घोर निर्धनता व्याप्त है। यही कारण है कि शोषित जातियों को अपना विकास करने के लिये संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया। जिससे शासन-प्रशासन में शोषित जातियों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके और शोषित जातियां अपने कष्टों का निवारण करते हुए समाज के विभिन्न क्षेत्रों में योग्यता अर्जित कर सकें।
परन्तु मनुवादी वर्ग योग्यता के उपरोक्त विश्लेषण को नहीं मानता और स्वयं योग्यता की कोई परिभाषा भी नहीं देता। वास्तव में मनुवादियों के तर्कों का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि मनुवादी वर्ग केवल शिक्षा संस्थानों और सरकारी नौकरियों में शोषित जातियों को संविधान प्रदत्त आरक्षण का विरोध करने के लिये परीक्षा में अधिक अंक प्राप्त करने को ही योग्यता मानता है। परन्तु परीक्षा में अंक प्राप्त करना कई कारकों पर निर्भर करता है। जैसे- प्रश्नपत्र में पूर्व अनुमानित प्रश्नों का जाना, उत्तर का प्रस्तुतिकरण, उत्तर पुस्तिका जाँचने वाले शिक्षक के पूर्वाग्रह आदि। यदि मनुवादी मानसिकता का शिक्षक होगा तो वो कभी भी शोषित जातियों के व्यक्ति को अधिक अंक नहीं देगा जबकि मनुवादी व्यक्ति को अधिक अंक दे देगा। इसके साथ ही उचित संसाधन मिलने पर शोषित जातियों के व्यक्ति भी विभिन्न परीक्षाओं में सर्वोच्च स्थान पर आते हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाली सुश्री टीना डॉबी शोषित जातियों से ही हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी भी कार्य क्षेत्र में योग्यता अर्जित की जाती है और यह उस व्यक्ति को उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर करता है कि वो व्यक्ति उस योग्यता को अर्जित करने में सक्षम हो सकता है या नहीं।
यदि मनुवादियों के दृष्टिकोण से योग्यता को परिभाषित किया जाए तो स्पष्ट है कि किसी भी क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करना ही तथाकथित योग्यता है। लेकिन इस प्रकार देखा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों में भारत के खिलाड़ियों का प्रदर्शन तथाकथित योग्य मनुवादियों के मुंह पर जोरदार तमाचा है। भारत ने सबसे पहले 1900 के अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों में भाग लिया था। लेकिन तब केवल एक सदस्यीय दल गया था। 1920 के अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों से भारत नियमित रूप से अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों में राष्ट्रीय दल भेज रहा है। इस तरह यदि 1900 से देखा जाए तो भारत ने 2016 के अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों तक कुल 24 बार और यदि 1920 से देखा जाए तो कुल 23 बार अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों में भागीदारी की है। यदि स्वतन्त्रता के बाद देखें तो भारत ने कुल 18 बार अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों में भागीदारी की है। 1920 से आज कुल 98 वर्ष हो रहे हैं। इन 98 वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों में भारत ने कुल 28 पदक प्राप्त किये, जिनमें से 9 स्वर्ण पदक, 7 रजत पदक और 12 कांस्य पदक हैं। इन कुल 28 पदकों में से 5 पदक (3 स्वर्ण और 2 रजत) भारत ने स्वतंत्रता से पहले जीते थे। यानि स्वतंत्रता के बाद भारत ने ओलम्पिक खेलों में केवल 23 पदक (6 स्वर्ण, 5 रजत और 12 कांस्य) ही जीते हैं। स्वतंत्रता के बाद कुल 1056 खिलाडियों ने अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों में भाग लिया। जबकि स्वतंत्रता से पहले 70 खिलाडियों ने अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों में भाग लिया। स्वतंत्रता से पहले इन 70 खिलाड़ियों ने 5 पदक जीते जिनमें 3 स्वर्ण और 2 रजत पदक थे। स्वतंत्रता के बाद 1056 खिलाडियों ने कुल 23 पदक जीते, जिनमें 6 स्वर्ण, 5 रजत और 12 कांस्य हैं। यदि गणित की सामान्य औसत विधि से देखा जाए तो इन 1056 खिलाड़ियों को अब तक अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों में कुल 75 पदक जीतने चाहिये थे, जिनमें कम से कम 50 स्वर्ण पदक होने चाहिए थे। इसके साथ ही स्वतंत्रता के बाद से भारत सरकार प्रति वर्ष बजट में बहुत बड़ी धनराशि खेल मंत्रालय को दे रही है। उसको देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों में जीते हुए पदकों की संख्या सैकड़ों में होनी चाहिए थी और मनुवादियों के योग्यता के ढिंढोरे के अनुसार तो आज तक अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों के सभी स्वर्ण, सभी रजत और सभी कांस्य पदक केवल इन मनुवादी खिलाड़ियों को ही जीतने चाहिए थे। परन्तु वास्तविकता इससे बिल्कुल उलट है।
पिछले कुछ वर्षों के वार्षिक बजट में खेल मंत्रालय को दी गयी धनराशि के आंकड़े देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मनुवादी-पूंजीवादी सरकार किस तरह शोषित वर्ग के धन की बर्बादी कर रही है:-
सारणी
बजट वर्ष
धनराशि (करोड़ रुपए में)
2018-19
2196.35
2017-18                          
1938.16
2016-17                          
1573.74
2015-16
1422.85
2014-15                         
1769
2013-14                         
1219
2012-13
1005.60
2011-12
1121
2010-11                         
3315.67
2009-10
3670.13
कुल योग
19231.50

(स्रोत:- युवा मामले एवं खेल मंत्रालय, भारत सरकार की विभिन्न रिपोर्टों से)
इस प्रकार 2009 से 2018 तक कुल 10 वार्षिक बजटों में भारत सरकार ने शोषित वर्ग के कुल 19231.50 करोड़ रुपये खेल मंत्रालय को दिए। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद से भारत सरकार ने लाखों करोड़ रूपए खेलों के नाम पर फूंक दिए। लेकिन उसके अनुरूप परिणाम नहीं मिल सका, इसका क्या कारण है?
अब देश में शोषित वर्ग की स्थिति को भी देख लिया जाए। वर्ष 2012 में देश में 48.73 करोड़ श्रमिक थे। इनमें से 94 प्रतिशत अर्थात 45.78 करोड़ श्रमिक असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत थे। नेशनल कमीशन फ़ॉर एंटरप्राइज इन अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर के 2007 के अनुमान के अनुसार देश में लगभग 80 प्रतिशत लोग प्रतिदिन आधे अमरीकी डॉलर (लगभग 20 रुपये) से भी कम पर जीवन यापन कर रहे थे। इन लोगों में बहुसंख्य लोग अनुसूचित जातियों के हैं। श्रमिकों में, चाहे वो कृषि श्रमिक हों या कारखानों में काम करने वाले हों या असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले हों, अधिकांशतः अनुसूचित जातियों के लोग ही हैं। क्योंकि अनुसूचित जातियों के लोगों के पास ना पूँजी है, ना नौकरियां हैं और ना ही भूमि हैं। वर्ष 2010-11 की भारत सरकार की कृषि गणना के अनुसार जोतों की कुल संख्या में से केवल 12.36 प्रतिशत जोतें और खेती के अंतर्गत कुल क्षेत्रफल में से केवल 8.6 प्रतिशत भाग ही अनुसूचित जातियों के लोगों पास है। इन जोतों में से 91.89 प्रतिशत जोतें लघु जोतों (2 हेक्टेयर से कम) हैं। इन आंकड़ों को देने का उद्देश्य अनुसूचित जातियों की स्थिति को दर्शाना था। भारत की निर्धन जनसँख्या का अधिकांश भाग यही अनुसूचित जातियां हैं। अब इससे अनुमान लग सकता है कि देश कि शोषित वर्ग इस स्थिति में नहीं है कि वो विभिन्न राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय खेलों में भाग लेने हेतु योग्यता अर्जित कर सके और फलस्वरुप भाग ले सके। फिर शोषित वर्ग के खून-पसीने से उत्पादित ये लाखों करोड़ रुपयों की बर्बादी किस पर और क्यों की जा रही है?
यदि अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों और अन्य राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले खिलाड़ियों की सामाजिक पृष्ठभूमि देखी जाए तो इनमें अनुसूचित जातियों के खिलाड़ी नगण्य ही हैं। क्योंकि खिलाड़ियों के चयन में चयन कर्ताओं द्वारा मनुवादी मानसिकता से काम लिया जाता है। जिस कारण अनुसूचित जातियों के खिलाड़ियों का चयन किया ही नहीं जाता। इस प्रकार शोषित लोग अपने खून-पसीने से धन उत्पन्न करते हैं लेकिन वही लोग इन खेलों में भाग नहीं ले पाते हैं। जिन लोगों का चयन बहुत सोच-विचार के बाद करने का दावा किया जाता है उन तथाकथित योग्य मनुवादियों का प्रदर्शन बहुत लज्जाजनक होता है। यह अवश्य है कि खेलों के नाम पर मनुवादी खिलाड़ी, मनुवादी अधिकारी, मनुवादी राजनीतिज्ञ, मनुवादी ठेकेदार और मनुवादी पूंजीपति आदि मनुवादी लोग प्रति वर्ष हजारों करोड़ रुपये हड़प कर जाते हैं। यह शोषित वर्ग के धन की घोर बर्बादी है। इस तरह इस देश में खेलों की आड़ में मनुवादियों का भ्रष्टाचार का खेल चल रहा है। जो मनुवादी हर समय योग्यता का ढिंढोरा पीटते रहते हैं वो अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेलों में बहुत लज्जाजनक प्रदर्शन करते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि मनुवादियों की योग्यता की परिभाषा के अनुसार भी मनुवादी स्वयं ही घोर अयोग्य सिध्द होते हैं। वास्तव में बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के संघर्ष के परिणामस्वरूप शोषित जातियों को संवैधानिक अधिकार और मानवाधिकार प्राप्त हुए। इस अधिकारों के द्वारा ही शोषित जातियां अपने शोषण का विरोध और अपना विकास करने में सक्षम हो सकी हैं। परन्तु मनुवादी वर्ग क्योंकि शोषक वर्ग है इसलिए शोषित जातियों की उन्नति को सहन नहीं कर पा रहा है। इसलिए मनुवादी वर्ग शोषित जातियों को पुनः दासता की बेड़ियों में जकड़ने, उनके गले में हांड़ी और कमर में झाड़ू बांधने के लिये ही तथाकथित 'योग्यता' का षड़यंत्र रच रहा है। योग्यता की गलत और अपने अनुकूल परिभाषा करके मनुवादी वर्ग यह दुष्प्रचार करता है कि शोषित जातियां 'अयोग्य' हैं परन्तु संवैधानिक आरक्षण के परिणामस्वरूप उनको सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व मिल जाता है जबकि 'योग्य' मनुवादी लोग पिछड़ जाते हैं। इसलिए शोषित जातियों को मिले संवैधानिक आरक्षण को समाप्त कर दिया जाए। लेकिन जैसा कि ऊपर विश्लेषण किया जा चुका है कि मनुवादियों का तथाकथित योग्यता का तर्क केवल बकवास है। ये मनुवादी स्वयं घोर अयोग्य हैं।
अतः शोषित जातियों को मनुवादियों के दुष्प्रचार में नहीं फंसना चाहिए। बल्कि बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की शिक्षाओं को ग्रहण करके मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था का उन्मूलन करके समतामूलक और शोषणमुक्त समाज के निर्माण हेतु संघर्ष करना चाहिये।

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