Thursday, May 14, 2020

शोषित वर्ग और तथाकथित न्याय (PART-2)


लोक सेवाओं और न्यायपालिका में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होने का शोषितों पर क्या प्रभाव पड़ता है इसे बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर  द्वारा लिखित अस्पृश्य और अस्पृश्यता विषयक निबंध के निम्न अंश से समझा जा सकता है:-
"तीसरी अड़चन जो अस्पृश्यों की असहाय स्थिति को विकट बनाती है, वह यह है कि अस्पृश्य के लिये यह सम्भव नहीं कि वे पुलिस से सुरक्षा और न्यायालयों से न्याय प्राप्त कर सकें। पुलिस के लोग सवर्ण हिन्दुओ के वर्गों से भर्ती किये जाते हैं। मजिस्ट्रेटों के पद पर भी सवर्ण हिंदुओं के लोग होते हैं। पुलिस और मजिस्ट्रेटों के वर्ग से सवर्ण हिंदुओं का नाता सगे-संबंधियों जैसा है। अस्पृश्यों के प्रति वे भी सवर्ण हिंदुओं की भांति भावनाओं और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रहते हैं। यदि कोई अस्पृश्य किसी पुलिस अधिकारी के पास सवर्ण हिन्दू के विरुद्ध शिकायत दर्ज कराने जाता है तो सुरक्षा के स्थान पर उसे ढेर सारी गालियां सुननी पड़ती हैं। या तो उसे शिकायत दर्ज किये बिना ही भगा दिया जाता है या रिपोर्ट ऐसी झूठी दर्ज की जाती है कि उसमें स्पृश्य हमलावरों के बच निकलने का मार्ग मिल जाता है। यदि वह मजिस्ट्रेट के न्यायालय में अपराधियों के विरुद्ध मुकदमा दायर करता है तो उस पर क्या कार्यवाही होगी, यह पहले ही मालूम हो जाता है। किसी अस्पृश्य को कोई हिन्दू गवाही देने के लिये नहीं मिलेगा क्योंकि गाँव में पहले ही षड़यंत्र रच दिया जाता है कि कोई भी अस्पृश्य का पक्ष नहीं लेगा, चाहे सच कुछ भी क्यों हो। यदि वह गवाह के रूप में अस्पृश्यों को पेश करता है तो मजिस्ट्रेट उनकी गवाही स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि वह आसानी से कह देगा कि वह तो उसका हितैषी है, इसलिये उसे स्वतंत्र गवाह नहीं कहा जा सकता। यदि वे स्वतंत्र गवाह हैं भी तो मजिस्ट्रेट के सामने एक आसान-सा तरीका यह कह देना है कि उसे अस्पृश्य के पक्ष में गवाह सच्चा नहीं प्रतीत होता। वह निडर होकर ऐसा फैसला सुना देगा, क्योंकि वह भली-भांति जानता है कि उसके ऊपर कोई न्यायालय उसके इस फैसले को नहीं बदलेगा, क्योंकि यह एक स्थापित नियम है कि अपील सुनने वाला न्यायालय मजिस्ट्रेट के फैसले में हस्तक्षेप करे, जो गवाहियों पर आधारित है और जिनकी उसने जाँच की है।"8
न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं का हित वादों को उलझाये रखने में होता है। इसीलिए शासन के सभी विभागों में वर्ष भर काम होता रहता है, परन्तु न्यायपालिका गीष्म सर्दियों के मौसम में कई महीनों कार्य से विरत रहती है क्योंकि न्यायाधीश ग्रीष्म सर्दियों की छुट्टियां मनाते हैं। प्रायः ही न्यायालयों में अधिवक्ता कई महीनों हड़ताल पर रहते हैं जिससे न्यायालयों में काम-काज ठप रहता है और जनता को मानसिक और आर्थिक कष्ट होता है। न्यायपालिका ने श्रमिकों की हड़ताल को विधिविरूद्ध घोषित कर दिया है लेकिन वही न्यायपालिका अधिवक्ताओं की हड़ताल पर चुप्पी साध लेती है। इसका कारण यही है कि वर्तमान न्यायपालिका प्रभुत्वशाली वर्ग अर्थात मनुवादी-पूँजीवादी वर्ग के हित साधन का उपकरण मात्र है तथा वह यथास्थितिवाद अर्थात मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के हित के अनुसार कार्य करती है। लोक सेवकों के भ्रष्टाचार पर बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने अपने अस्पृश्य और अस्पृश्यता विषयक निबन्ध में कहा है:-
"पुलिस कर्मचारी और मजिस्ट्रेट प्रायः भ्रष्ट होते है। यदि वे केवल भ्रष्ट हों तो स्थिति संभवतः उतनी ख़राब हो, क्योंकि भ्रष्ट अधिकारी को कोई भी पक्ष खरीद सकता है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि पुलिस कर्मचारी तथा मजिस्ट्रेट भ्रष्ट होने की अपेक्षा अधिक पक्षपातपूर्ण होते हैं। हिन्दुओं के प्रति उनके इस पक्षपातपूर्ण और अस्पृश्यों के प्रति विद्वेषपूर्ण व्यव्हार के कारण ही अस्पृश्यों को न्याय और सुरक्षा नहीं मिल पाती। एक के प्रति पक्षपात और दूसरे के प्रति विद्वेष का कोई निदान नहीं है, क्योंकि यह सामाजिक और धार्मिक घृणा की भावना पर आधारित है, जो हर हिन्दू में जन्मजात होती है। पुलिस और मजिस्ट्रेट को अपनी प्रेरणाओं, अपने हितों और संस्कारों के कारण अस्पृश्यों की भावनाओं के साथ सहानुभूति नहीं होती। वे उस आभाव, पीड़ा, लालसा और इच्छाओं से अनुप्राणित नहीं होते, जो अस्पृश्यों को उद्वेलित किये रहती हैं। इसके फलस्वरूप वे लोग अस्पृश्यों की आकांक्षाओं के प्रति प्रत्यक्षतः विरोधी और विद्वेषपूर्ण हो जाते है, उन्हें आगे नहीं बढ़ने देते, उनके ध्येय-हित की उपेक्षा करते हैं और ऐसी प्रत्येक चीज को काट देते है, जिसमें अस्पृश्यों को गर्व और आत्म-सम्मान मिल सके। दूसरी ओर वे हिन्दुओं का उनके प्रत्येक काम में साथ देते हैं, उनके साथ पूरी सहानुभूति रखते हैं, जिससे उनकी शक्ति, क्षमता, मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा बनी रहे। जब कभी इन दोनों में संघर्ष होता है, तब वे अस्पृश्यों के इस विद्रोह को कुचलने में ये हिन्दुओं के एजेन्ट के रूप में कार्य करते हैं और प्रत्यक्षतः निर्लज्ज होकर हिन्दुओं को उनके प्रत्येक घिनौने काम में प्रत्येक सम्भव, उचित- अनुचित सहायता भी देते है, जिससे अस्पृश्यों को उनकी करनी का फल चखाया जा सके और वे ऊपर उठने पाएं।"9
न्यायिक प्रक्रियायें अत्यंत क्लिष्ट  और व्ययसाध्य हैं। अधिवक्ता से लेकर न्यायाधीश तक भ्रष्ट हैं।  ऐसी स्थिति में जो धन खर्च करता है न्यायालय के निर्णय सदैव उसके ही पक्ष में आते हैं। अनुसूचित जातियों के लोग निर्धन और शोषित हैं, इसलिए न्यायालयों में उसे पक्षपात, शोषण और दमन के अलावा कुछ नहीं मिलता। भारत की वर्तमान व्यवस्था में तथाकथित 'न्याय' बिकता लेकिन यह पक्षपातपूर्ण ढंग से बिकता है। यहां मनुवादी वर्ग के अपराधी, घोटालेबाज भ्रष्टाचारी राजनेता, नौकरशाह तथा पूँजीपति खुले घूमते हैं और शोषित जातियों के निर्दोष लोग जेलों में सड़ते हैं, फांसी पर झूलते हैं तथा फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाते हैं। मनुवादी वर्ग द्वारा शोषित जातियों के लोगों के किये गये जनसंहार, बलात्कार, सामूहिक बलात्कार आगजनी के दोषी व्यक्ति न्यायालयों से ससम्मान मुक्त हो जाते हैं। बिहार राज्य के अरवल जिले के गांव में 1 दिसम्बर 1997 को मनुवादी वर्ग के लोगों द्वारा अनुसूचित जातियों के 58 लोगों के किये गये जनसंहार, जिनमें 27 महिलायें तथा 16 बच्चे भी थे, बिहार राज्य के जनपद भोजपुर के गांव बथानी टोला में 11 जुलाई 1996 को मनुवादी वर्ग के लोगों द्वारा अनुसूचित जातियों के 21 लोगों, जिनमें 11 महिलाएं, 6 बच्चे तथा 3 नवजात शिशु भी थे, के किये गये जनसंहार, महाराष्ट्र राज्य के भंडारा जनपद के खैरलांजी गांव में मनुवादी वर्ग के लोगों द्वारा अनुसूचित जातियों के चार व्यक्तियों की हत्या तथा उनके घर की महिलाओं को सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र करके घुमाने तथा इसी जैसे अनगिनत जनसंहारों, बलात्कार सामूहिक बलात्कार के दोषी खुलेआम घूम रहे हैं। भंवरी देवी सामूहिक बलात्कार मामला, एम0 मीना बलात्कार मामला, आर0 चित्रा बलात्कार मामला, मथुरा सामूहिक बलात्कार मामला, सुमन रानी बलात्कार मामला आदि मामलों में मनुवादी न्यायाधीशों द्वारा घोर पक्षपात करते हुए दोषियों को मुक्त कर दिया गया क्योंकि दोषी मनुवादी वर्ग के सदस्य थे।
बम्बई विधान मण्डल में दिनांक 13 फरवरी 1933 को 'ग्राम पंचायत विधेयक' के विषय पर भाषण देते हुए बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने कहा :-
"माननीय सदस्य राव बहादुर चितले द्वारा उठाये गए मुद्दे का मैं उत्तर दे रहा था कि न्यायपालिका का सांप्रदायिक झुकाव है या नहीं। मेरा उनको उत्तर यह था कि जिस सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत हम रहते हैं, उसके परिणामस्वरुप सांप्रदायिक झुकाव आवश्यक है।"10
लोक सेवाओं और न्यायपालिका में शोषित वर्ग के लोगों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होने के कारण मनुवादी तथाकथित न्यायधीश शोषित वर्ग के साथ कैसा पक्षपातपूर्ण और अपमानजनक व्यवहार करते हैं इसका उल्लेख करते हुए महामना जोतिबा फुले ने लिखा है:-
"कई युवा ब्राह्मण लोगों ने तरह-तरह के कानून की किताबें तोते की तरह रट लेने की वजह से उनकी परीक्षा समाप्त होते ही हमारी भोली सरकार उनको बड़े-बड़े जजों के स्थान पर नियुक्त कर देती हैं, किन्तु ये लोग अपने सार्वजनिक मूल महत्व के भाईचारे के सम्बंध तोड़कर यहां के भूदेव-ब्राह्मणों के वारिसपुत्र बन जाते हैं और कोर्ट में सभी अन्य जातियों के बुजुर्ग, बड़े दुर्बल सज्जनों को तुच्छ मानकर उनको अपमानित करते हैं। पहले ये सरकारी रिवाज के अनुसार सभी गवाहों को दस बजे कोर्ट में उपस्थित रहने के लिये कहते हैं और खुद बारह बजे कोर्ट में आते हैं। फिर वहां के किसी कमरे में घण्टा-आधा घण्टा पड़े रहते हैं। फिर आँखे मलते हुए बाहर चौखट पर कुर्सी पर के आसन पर आकर बैठ जाते हैं। फिर जेब का पान-बीड़ा मुंह में डालकर बन्दर की तरह बिचकाकर खाते हुए, पाँव पर पाँव रखकर, जेब का डिब्बा बाहर निकालकर, नसवार फूंक नाक में ठूंसते-ठूंसते नीचे बैठे हुए लोगों की ओर जरा-सी नजर टेढ़ी करके देख लेते हैं और आंख बंद कर लेते हैं। इसी दरम्यान लाल पगड़ी, काला कोट, पतलून, जूते में सजकर आये हुए वकील उनके सामने खड़े रहकर मूंछ पर ताव देते हुए "युवर ऑनर" कहने की पहलदारी ललकार ठोंकते हैं तो ये भूदेव (ब्राह्मण) जज साहब अपने पेट पर हाथ घुमाते हुए अपने जातिभाई वकील से पूछते हैं कि "तुम्हारा क्या कहना है?" इस पर वकील साहब अपनी जेब में हाथ डालते हुए कहते हैं कि "आज एक खूनी केस के सम्बंध में हमें सेशन कोर्ट में उपस्थित होना है। इसलिये आप मेहरबान होकर हमारी ओर से यहां के सभी केस रोक दीजिये।" जज साहब के गर्दन हिलाकर अनुमोदन देते ही वकील साहब घोड़ागाड़ी पर सवार होकर अपना रास्ता पकड़ लेते हैं। फिर जज साहब अपने काम की शुरुआत कर देते हैं। इस सम्बंध में यहां कुछ नमूने दे रहा हूँ।
कई भूदेव (ब्राह्मण) जज अपनी ऊंची जाति के नखरे में या कल के अमल के झौंके में न्याय करते समय, शेष सभी जाति के अधिकांश लोगों के साथ "अरे, क्या रे" के बगैर बोलते ही नहीं। कई अकड़बाज गृहस्थों ने कोर्ट में आते ही इन खूबसूरत भूदेवों (ब्राह्मणों) को उछलकर अभिवादन नहीं किया तो उनकी जबानी लेते समय उनको परेशान करते हैं। इसी दरम्यान ब्राह्मणी धर्म के विरुद्ध किसी महान गृहस्थ को कोर्ट में उपस्थित होने में देर हुई तो उसका बदला (यहाँ सुधार करने वाले लोगों को सरकार के नाम से क्या धूल उड़ानी चाहिये?) लेने के लिये उनकी अमीरी की परवाह करते हुए उन्हें भरे कोर्ट में जबानी लेते समय रेवड़ी-रेवड़ी बना देते हैं। फिर ये भूदेव (ब्राह्मण) बौध्दधर्मियों मारवाड़ियों को किस-किस तरह से बेहाल करते हैं यह बात तो सभी को मालूम है। कभी-कभी इन छली भूदेवों (ब्राह्मणों) के दिमाग में वादी-प्रतिवादियों के बोलने का सारांश समझ में नहीं आया तो ये सुधबुधवादी ब्राह्मण कुत्तों की तरह भौंककर उनके जिगर को कड़े शब्दों से काटते हैं। वह इस प्रकार से कि "तू बेवकूफ है, तुझे बीस डंडे मारकर एक गिनना चाहिए। तू लाल मुंह वाले का भाई तीन चोटी वाला बड़ा लुच्चा है।" इस पर उन्होंने कुछ कहने की हिम्मत की तो उन गरीबों का मुकदमा खारिज कर दिया जाता है।
इतना ही नहीं, इन खुनसी जजों की तबियत यदि ठीक नहीं रही तो उनके सभी जबानी कागजात घर ले जाते हैं। वहाँ की कुछ बुनियादी बातें नष्ट कर देते हैं और उनकी बजाय दूसरे कागजात तैयार करवाकर उनके आधार पर मनचाहे फैसले देते नहीं होंगे, यह किस आधार पर माना जा सकता है? चूंकि फिलहाल किसी जबानी पत्र पर, जबानी दिखवा देने वाले के हस्ताक्षर या निशान कर लेने का रिवाज ही निकाल दिया गया है। तात्पर्य, अधिकांश भूदेव (ब्राह्मण) जज मनचाहे घासीराम कोतवाल की तरह फैसले देने लगे, इसलिये कई खानदानी सभ्य साहूकारों ने अपना देने-लेने का व्यवहार बन्द कर दिया है। फिर भी अधिकांश ब्राह्मण और मारवाड़ी साहूकार सदर अपमान का विधि-निषेध मन में लाते हुए कई अनपढ़ किसानों से लेन-देन करते हैं। वह इस तरह कि वे मुसीबत में पड़े किसानों को कहते हैं कि "सरकारी कानून की वजह से हम तुम्हें गिरवी पर कर्ज के रूप में रुपया-पैसा दे नहीं सकते। इसलिये तुम यदि अपने खेत हमको बेच देते हो तो हम तुमको कर्ज देंगे और जब तुम हमारे पैसे लौटा दोगे तब हम तुम्हारे खेत बेच करके तुम्हारे कब्जे में दे देंगे।" इसके लिये वे कसम खाकर बोली बोलते हैं। लेकिन पाक और अहिंसक साहूकारों से परिवार-प्रेमी, अज्ञानी, भोले-भाले किसानों के खेत शायद ही वापस मिलते हैं। इसके अलावा ये धर्म कर्मवादी साहूकार अनपढ़ किसानों को कर्ज देते समय उनका और भी कई तरह से नुकसान करते हैं। ये साहूकार अनपढ़ किसानों पर कई तरह के नकली जमा-खर्च की किताबों के साथ ही करारनामा के प्रमाण देकर फरियादी को जब ब्राह्मण मुंसिफ के कोर्ट में लाया जाता है, तब अनपढ़ किसान सही न्याय मिलने की भावना से अपने घर के गहने बेचकर, पर्याप्त रुपये-पैसे झगड़े पर खर्च करते हैं लेकिन वहां उनकी जाति के विद्वान सिफारिशदार और सही सलाह देने वाले जानकर वकील नहीं होने की वजह से उन्ही को मुसीबत में फंसना पड़ता है।"11
आज भी इस स्थिति में कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है तथा आज भी शोषित वर्ग के लोगों को मनुवादी तथाकथित न्यायाधीशों से अपमानित ही होना पड़ता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्तमान समय में 'न्याय' के रूप में जो परोसा जा रहा है वह शक्तिशाली की इच्छा अर्थात मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग की इच्छा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अर्थात वर्तमान मनुवादी-पूँजीवादी व्यवस्था में तथाकथित न्यायपालिका द्वारा शोषितों को सदैव 'अन्याय' ही मिलता है। वास्तव में वर्ग विभाजित, वर्ण विभाजित और जाति विभाजित समाज व्यवस्थाओं में शोषितों को दिया जा रहा तथाकथित 'न्याय' केवल एक 'पाखण्ड' होता है और तथाकथित न्यायपालिका शोषक वर्ग के तलवे चाटती है। ये तथाकथित न्यायपालिका ऐसा कोई भी कार्य नहीं कर सकतीं जिससे शोषक व्यवस्था को ठेस पहुंचती हो और शोषक वर्ग के हितों को हानि होने की संभावना हो। यही स्थिति भारत में है। भारत में तथाकथित न्यायपालिका कभी भी मनुवादी-पूंजीवादी व्यवस्था को चोट पहुंचाने और मनुवादी-पूंजीवादी वर्ग के हितों को हानि पहुंचाने वाला कार्य नहीं कर सकती। यही कारण है कि न्यायपालिका विभिन्न फालतू विषयों पर स्वतः संज्ञान लेकर कार्य कर देती है और तानाशाही पूर्वक आदेश देती रहती है लेकिन कभी भी वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के उन्मूलन करने हेतु कोई आदेश नहीं देती, सम्पत्ति के समान विभाजन और उत्पादन साधनों पर शोषित वर्ग के स्वामित्व हेतु कोई आदेश नहीं निकालती।
इसलिये शोषित वर्ग जब तक सत्ता प्राप्त करके समतामूलक और शोषणमुक्त समाज का निर्माण नहीं करेगा तब तक इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आएगा। लेकिन इस संघर्ष में शोषित वर्ग को मनुवादियों और इनके सगे भाई तथाकथित साम्यवादियों से सावधान रहने की आवश्यकता है। इसलिए शोषित वर्ग इस संघर्ष में अपना नेतृत्व स्वयं करे। गौतम बुध्द ने यही कहा है कि अत्त दीपो भव! अर्थात अपना दीपक स्वयं बनो और मार्गदर्शक के रूप में बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की शिक्षाओं अर्थात अम्बेडकरवादको अपनाए।
-------------------------------------
सन्दर्भ और टिप्पणियाँ
1.       मनुस्मृतिः, पण्डित रामेश्वरभट्टकृतया, सम्पादक- बी0 एस0 रावत, प्रथम संस्करण- 2015, प्रकाशक- सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ- 272-273.
2.       संविधान सभा में डॉ0 अम्बेडकर, संकलन- परिनिब्बुत्त श्याम सिंह, पृष्ठ- 174, तृतीय संस्करण 2012, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली।
3.       राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की न्यायपालिका में आरक्षण सम्बन्धी रिपोर्ट, पृष्ठ- 06
4.       राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की न्यायपालिका में आरक्षण सम्बन्धी रिपोर्ट, पृष्ठ- 08
5.       राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की न्यायपालिका में आरक्षण सम्बन्धी रिपोर्ट, पृष्ठ- 18
6.       भारत का उच्चतम न्यायालय, मासिक लम्बित वादों सम्बन्धी आंकड़े
7.       राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड
8.       बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खण्ड- 10, पृष्ठ- 177-178, तृतीय संस्करण 2013, प्रकाशक:- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली।
9.       बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खण्ड- 10, पृष्ठ- 179, तृतीय संस्करण 2013, प्रकाशक:- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली।
10.    बाबा साहेब डॉ0 अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय, खण्ड- 3, पृष्ठ- 136-137, तृतीय संस्करण- 2013, प्रकाशक- डॉ0 अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली।
11.    किसान का कोड़ा (शेतक-याचा आसूड), महामना जोतिबा फुले, महामना जोतिबा फुले रचनावली, अनुवाद एवं सम्पादन एल0जी0 विमलकीर्ति, खण्ड 1, संशोधित संस्करण-1996, दूसरी आवृत्ति- 2009, पृष्ठ- 313 से 315,
प्रकाशक- राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।

No comments:

Post a Comment