Thursday, May 21, 2020

मनुवादी व्यवस्था और भ्रष्टाचार (PART-1)


प्रायः 'भ्रष्टाचार' शब्द सुनने में आता रहता है परन्तु 'भ्रष्टाचार' की परिभाषा क्या है यह बहुत कम लोगों को पता होगी। सामान्यतः भ्रष्टाचार के आर्थिक पक्ष को ध्यान में रखकर ही भ्रष्टाचार को इस प्रकार परिभाषित किया जाता है कि:-
"अपने सरकारी पद और सत्ता का दुरुपयोग करते हुए व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति करना ही भ्रष्टाचार कहलाता है।"
परन्तु यह संकीर्ण परिभाषा है और जो भ्रष्टाचार को केवल सरकारी संस्थानों और आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित कर देती है। वास्तव में भ्रष्टाचार की परिभाषा अत्यंत व्यापक है और जीवन का प्रत्येक क्षेत्र इस परिभाषा की परिधि में जाता है। भ्रष्टाचार की यह व्यापक परिभाषा इस प्रकार है:-
"मनुष्यों के सामाजिक जीवन में स्वीकृत सार्वभौमिक मूल्यों और आदर्शों का व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये सार्वजनिक रूप से या गोपनीय रूप से उल्लंघन करना ही भ्रष्टाचार कहलाता है।"
इस प्रकार इस परिभाषा में सार्वभौमिक मूल्यों और आदर्शों का उल्लेख किया गया है। इसलिये इसका स्पष्टीकरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। गौतम बुध्द ने मानव मात्र की समानता की शिक्षा दी। फ्रांस की 1789 की क्रान्ति ने भी समानता, स्वतन्त्रता और मैत्री का आदर्श प्रस्तुत किया। इसी तरह 1917 में हुई रूस की बोल्शेविक क्रान्ति ने विश्व को बताया कि मानव समाज में समानता केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में भी होनी चाहिए तभी राजनीतिक समानता साकार हो सकेगी। अन्यथा जो व्यक्ति किसी जमींदार या पूंजीपति पर आर्थिक रूप से निर्भर हो वो कभी भी राजनीतिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो सकता। इस प्रकार उसकी राजनीतिक स्वतन्त्रता मिथ्या धारणा ही बनी रहेगी। इसी तथ्य को बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने भी प्रस्तुत किया तथा सामाजिक और आर्थिक समानता को प्राप्त करने के लिये ही बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने 'राज्य समाजवाद (State Socialism)' का कार्यक्रम प्रस्तुत किया था।
इस प्रकार जिन सार्वभौमिक मूल्यों और आदर्शों का ऊपर उल्लेख किया गया है वो मूल्य और आदर्श जाति, धर्म, सम्प्रदाय, लिंग, रंग, प्रजाति, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, सभ्यता आदि का ध्यान करते हुए सभी मानवों की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समानता, स्वतन्त्रता और मैत्री हैं। ये मूल्य काल और क्षेत्र की सीमा से परे हैं। अर्थात ये मूल्य और आदर्श सर्वकालिक और सार्वभौमिक है। कोई भी मानव समाज यह नहीं कह सकता कि वो इन आदर्शों और मूल्यों में विश्वास नहीं करता। इससे स्पष्ट है कि व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये इन सार्वभौमिक आदर्शों और मूल्यों का सार्वजनिक रूप से या गोपनीय रूप से उल्लंघन करना ही भ्रष्टाचार कहलाता है।
यदि भ्रष्टाचार की व्यापक परिभाषा की कसौटी पर भारतीय समाज का परीक्षण किया जाए तो जैसा कि ज्ञात ही है कि भारतीय समाज मनुवाद पर आधारित है। इस मनुवादी सामाजिक व्यवस्था ने व्यक्तियों को वर्ण, जाति और वर्गों में विभाजित कर दिया है। मनुवादियों ने मनुवाद जनित वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था तथा श्रेणीगत असमानता (Graded Inequality) द्वारा व्यक्तियों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से विषम बनाकर उनका शोषण किया। इस प्रकार मनुवादी समाज में समानता, स्वतन्त्रता और मैत्री का अस्तित्व ही नहीं है। मनुवादियों ने अपने स्वार्थ के लिये बहुसंख्यक लोगों को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों से वंचित करके उनका शोषण किया। इससे स्पष्ट है कि मनुवादी सामाजिक व्यवस्था एक 'भ्रष्ट सामाजिक व्यवस्था' है।
अब हमें इस विषय का विश्लेषण करना है कि भारतीय वर्ण विभाजित, वर्ग विभाजित और जाति विभाजित समाज में कौन सा वर्ग या व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त हैं? महान क्रान्तिकारी दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने कहा है कि किसी समाज के उत्पादन सम्बन्ध ही उस समाज की आधारिक संरचना का निर्धारण करते हैं। इसलिए मनुवादी सामाजिक व्यवस्था के भ्रष्टाचार के स्वरूप का विश्लेषण हम उसके आर्थिक पक्ष से ही आरम्भ करते हैं। इसके लिये हम सर्वप्रथम इसकी छान-बीन करेंगे कि भ्रष्टाचार के द्वारा अर्जित तथाकथित 'काला धन' अर्थात घोषित आय के अतिरिक्त अन्य साधनों से अर्जित धन, समाज के किन लोगों और वर्गों के पास है। इसके लिये भारत के लोगों की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण करना होगा।
भारत में अधिकांश व्यक्तियों की आय का स्रोत कृषि है। इसी कारण श्रमिकों की बहुसंख्या भी कृषि कार्य में ही लगी हुई है। 2009-2010 के आंकड़ों के अनुसार रोजगार प्राप्त कुल लोगों में से 52.1 प्रतिशत लोग कृषि और सम्बद्ध क्षेत्रों में कार्यरत हैं।1 वर्ष 2012 में देश में 48.73 करोड़ श्रमिक थे। इनमे से 94 प्रतिशत अर्थात 45.78 करोड़ श्रमिक असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत थे। इस प्रकार केवल 2.92 करोड़ श्रमिकों को ही संगठित क्षेत्रों में रोजगार प्राप्त हुआ था।2 वर्ष 2008 में देश में 2.75 करोड़ लोगों को ही संगठित क्षेत्र में रोजगार प्राप्त था। इनमें से केवल 1.73 करोड़ लोग ही सरकारी संस्थानों और सरकार अधिग्रहीत संस्थानों में कार्यरत थे।3 कारपोरेट क्षेत्र का 40 से 80 प्रतिशत तक श्रम असंगठित है और अनुमानतः 95 प्रतिशत से अधिक फर्म 5 से कम वेतनभोगियों को रखती हैं। प्रतिफर्म वेतनभोगियों का औसत जो 1990 में 2.9 था, 2005 में गिरकर 2.4 हो गया।4 वर्ष 2011 में देश की कुल जनसंख्या 121.07 करोड़ थी। इनमें से 45.78 करोड़ (कुल जनसंख्या का 37.81 प्रतिशत) लोग असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं। यदि इसमें निजी या कारपोरेट क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों को जोड़ा जाए तो अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में रोजगार प्राप्त लोगों में से बहुसंख्यक लोग केवल दैनिक मजदूरी से जीविका कमा रहे हैं। वर्ष 2013 में देश में 43.7 करोड़ श्रमिक असंगठित क्षेत्र में कार्यरत थे, जिनमें 24.6 करोड़ यानि 56.29 प्रतिशत अकेले कृषि क्षेत्र में, 4.4 करोड़ निर्माण क्षेत्र में शेष अन्य विनिर्माण एवं सेवाओं के क्षेत्र में कार्यरत थे।5 यदि इन श्रमिकों के परिवार के सदस्यों को भी ध्यान में रखा जाए तो अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में बहुसंख्य लोगों का जीवन दैनिक मजदूरी पर आधारित है। इस कारण उनमें आय की असुरक्षा सतत बनी ही रहती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012 में देश की जनसंख्या का 21.92 प्रतिशत भाग निर्धनता रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहा था।6
वर्ष 2011 में देश की जनसंख्या के अनुसार देखा जाए तो 26.52 करोड़ लोग निर्धनता रेखा से नीचे थे। विश्व बैंक ने क्रय शक्ति समता (Purchasing Power Parity) के आधार पर प्रतिदिन 1.25 अमेरिकी डॉलर की आय को निर्धनता रेखा माना है।7 परन्तु भारतीय परिभाषा के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर निर्धनता रेखा ग्रामीण क्षेत्रों  में 32.40 रुपये प्रतिदिन या 0.48 अमेरिकी डॉलर प्रतिदिन (1 अमेरिकी डॉलर=67.47 रूपए) तथा नगरीय क्षेत्रों में 46.90 रुपये प्रतिदिन या 0.69 अमेरिकी डॉलर प्रतिदिन को माना गया है। हालांकि भारतीय अर्थशास्त्री क्रय शक्ति समता पर आधारित विश्व बैंक की निर्धनता रेखा की आलोचना करते हैं परन्तु इससे भारतीय निर्धनता रेखा और विश्व स्तर पर निर्धनता रेखा का तुलनात्मक अनुमान तो लग ही जाता है।
यदि देश में कृषि भूमि की स्थिति पर विचार किया जाये तो वर्ष 2005-2006 में जोत का औसत आकार 1.23 हेक्टेयर था जो 2010-2011 में घटकर 1.15 हेक्टेयर हो चुका है। सीमान्त जोतें अर्थात 1.00 हेक्टेयर से कम कुल जोतों का 67.10 प्रतिशत भाग हैं। 17.91 प्रतिशत जोतों का आकार 1 से 2 हेक्टेयर के बीच है तथा 14.29 प्रतिशत जोतों का आकार 2 से 10 हेक्टेयर के बीच है। केवल 0.70 प्रतिशत जोतों का आकार 10 हेक्टेयर से अधिक है।8 इस प्रकार कृषि भूमि का अत्यधिक सकेन्द्रण उच्च वर्ग के बीच ही है। देश में लगभग 80 प्रतिशत लोग प्रतिदिन आधे अमेरिकी डॉलर से कम आय पर जीवन-यापन कर रहें हैं।9 इनमें से अधिकांश लोग 20 रुपये से कम आय पर जीवन-यापन कर रहे हैं। इनमें से 22 प्रतिशत लोग प्रतिदिन 11.60 रुपये की आय पर, 19 प्रतिशत लोग  प्रतिदिन 11.60 रुपये से 15 रुपये के बीच की आय पर तथा 36 प्रतिशत लोग प्रतिदिन 15 रुपये से 20 रुपये के बीच की आय पर जीवन-यापन कर रहे हैं10 "एक अन्य अध्ययन के अनुसार देश की ऊपर की 10 प्रतिशत जनसंख्या के पास कुल परिसम्पत्ति का 85 प्रतिशत एकत्र हो गया है। जबकि नीचे की 60 प्रतिशत जनसंख्या के पास मात्र 2 प्रतिशत है। देश में 0.01 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनकी आय पूरे देश की औसत आय से 200 गुना अधिक हो चुकी है। देश की ऊपर की 3 प्रतिशत और नीचे की 40 प्रतिशत जनसंख्या की आय के बीच अन्तर आज (2008 में) 60 गुना हो चुका है। आयकर विवरणों के अध्ययन पर आधारित अपने शोधपत्र में अभिनीत बनर्जी और थॉमस पिकेरी ने बताया है कि वर्ष 2000 में भारत के सबसे धनी 0.01 प्रतिशत लोगों की आय, कुल आय से 150 से 200 गुना अधिक थी। दस लाख लोग ऐसे हैं जिनकी मासिक आय 50 लाख रूपये या उससे अधिकहै।"11 2008 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (NSSO) के अनुसार देश की 18 करोड़ जनसंख्या झुग्गियों में रहती है और 18 करोड़ जनसंख्या फुटपाथों पर सोती है तथा बेघर हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन औसत उपभोग मात्र 19 रूपये और नगरीय क्षेत्रों में 30 रूपये हैं। गावों में 10 प्रतिशत जनसंख्या 9 रूपये प्रतिदिन पर गुजारा करती हैं।12 इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि देश में सरकार द्वारा घोषित निर्धनता से कई गुना अधिक निर्धनता व्याप्त है तथा सरकार आंकड़ों की बाजीगरी दिखाकर इस तथ्य को छिपाती रहती है। परन्तु निर्धनता के ये आंकड़े पूरी सच्चाई नहीं बताते हैं। पूरा सच हम तभी जान पाएंगे जब हम निर्धनों की स्थिति का सामाजिक विश्लेषण करेंगे।
(क्रमशः)

No comments:

Post a Comment