Saturday, May 16, 2020

खामोश मनुवादी जनसंहार (PART-1)


"ऊपर बैठने वालों का कहना है:
यह महानता का रास्ता है,
 जो नीचे धंसे हैं, उनका कहना है:
यह रास्ता कब्र का है।"
 ----------- बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
(बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की जर्मन कविता Die Oberen Sagen का हिन्दी अनुवाद)
ब्रेष्ट की इन पंक्तियों में वर्ग विभाजित, वर्ण विभाजित और जाति विभाजित समाज का यह नग्न सत्य वर्णित है कि एक ही व्यवस्था शोषक वर्ग को तो लाभ पहुंचाती है जबकि शोषित वर्ग का शोषण करती है।
आगे बढ़ने से पहले निम्नलिखित कुछ तथ्यों तथा आंकड़ों पर दृष्टि डालना उचित रहेगा:-
(1) न्यूज चैनल एन0डी0टी0वी0 (NDTV) पर दिनांक 10-08-2017 को प्रसारित हुए कार्यक्रम "प्राइम टाईम" के अनुसार:-
() दिनांक 06-08-2017 को दिल्ली में सीवर (Sewer) में सफाई करते हुए 3 व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी।
() दिल्ली में सीवर साफ करते हुए पिछले दो महीनों के अन्दर 7 व्यक्तियों की मृत्यु हो चुकी है।
() 1993 से अब तक दिल्ली में सीवर साफ करते हुए 81 व्यक्तियों की मृत्यु हो चुकी है।
() देश भर में 1993 से अब तक सीवर साफ करते हुए कुल 1471 व्यक्तियों की मृत्यु हो चुकी है।
() देश में सीवर साफ करते हुए प्रतिवर्ष औसतन 100 व्यक्तियों की मृत्यु होती है।
() सीवर साफ करने वाले व्यक्ति को एक दिन की मजदूरी मात्र 250 रुपये मिलती है। जबकि दिल्ली में दक्ष (Skilled) श्रमिक की दैनिक मजदूरी 622 रुपये है।
() एक सफाईकर्मी को प्रतिदिन 25 से 30 सीवर साफ करने पड़ते हैं।
() सीवर की सफाई करने वाले 80 प्रतिशत लोग 60 वर्ष की आयु से पहले ही मर जाते हैं।
(2) समाचार पत्र जनसत्ता के लखनऊ संस्करण में दिनांक 24-08-2017 को पृष्ठ 4 पर प्रकाशित समाचार के अनुसार दिल्ली में पिछले 35 दिनों में कुल 9 व्यक्तियों की सीवर साफ करते हुए मृत्यु हो चुकी है।
(3) समाचार पत्र जनसत्ता के लखनऊ संस्करण में दिनांक 23-08-2017 को पृष्ठ 5 पर प्रकाशित समाचार के अनुसार लवकुश नगर थाना क्षेत्र के गुधौरा गांव जिला छतरपुर, मध्य प्रदेश में एक तथाकथित उच्च जाति के व्यक्ति ने अनुसूचित जाति की एक बालिका को बलपूर्वक हाथ से मानव मल उठाने के लिये बाध्य किया।
(4) प्रेक्सिस इंस्टीट्यूट फॉर पार्टिसिपेटरी प्रेक्टिसेस, नई दिल्ली (Praxis Institute for Participatory Practices, New Delhi) द्वारा वर्ष 2014 में दिल्ली में किये गए अध्ययन के अनुसार:-
() अध्ययन से पता चला कि सीवर की सफाई करने वाले व्यक्तियों में से 67 प्रतिशत केवल वाल्मीकि जातियों और उसकी उपजातियों तथा 7 प्रतिशत केवल चमार और उसकी उपजातियों से थे। इस प्रकार 74 प्रतिशत सीवर सफाई कर्मी केवल दो जातियों वाल्मीकि और चमार से थे और शेष 26 प्रतिशत में अन्य शोषित जातियों और धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बने शोषित जातियों के लोग थे। यह केवल दिल्ली की स्थिति है। इससे पूरे देश की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। इससे पुनः यह सिद्ध हो जाता है कि मल-मूत्र उठाने और झाड़ू लगाने का काम हजारों वर्षों से शोषित जातियों से ही करवाया जा रहा है।
() सीवर सफाई कर्मियों से दैनिक मजदूरी पर ठेकेदारों द्वारा कार्य कराया जाता है। औसतन इनको 4500 रुपये प्रतिमाह मिलता है जिनमें ठेकेदार द्वारा विभिन्न कटौतियां करके अन्तिम रूप से सीवर सफाई कर्मी को केवल 2500 रुपये से 2700 रुपये प्रतिमाह तक ही मिल पाते हैं। जो कि औसतन 84 रुपये से 90 रुपये प्रतिदिन ही हुआ।
जो एक अदक्ष (Unskilled) श्रमिक को मिलने वाली दैनिक मजदूरी से भी अत्यंत कम है।
() सफाई कर्मियो की जीवन प्रत्याशा सामान्य मनुष्य से 10 वर्ष कम होती है।
(5) सफाई कर्मचारियों की समस्याओं को हल करने और उनके पुनर्वास के लिये विशेष जोर देते हुए मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के उपायों सुझाव देने हेतु भारत सरकार के योजना आयोग द्वारा गठित 1989 में गठित कार्यबल द्वारा वर्ष 1990-91 में प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार:-
() वर्ष 1991 में लगभग 400000 (चार लाख) लोग मानव-मल ढोने के कार्य मे लगे थे।
() अनुसूचित जातियों का एक बड़ा वर्ग परम्परागत रूप से शहरों कस्बों में मानव मल ढोने के काम में लगा हुआ है।
() मल और गन्दगी के काम से भरे ऐसे वातावरण का इन कर्मचारियों के केवल आत्मसम्मान और व्यक्तित्व पर बल्कि उनकी मानसिकता जीवन के प्रति उनके रवैये पर निराशाजनक प्रभाव पड़ता है।
() 1961 में हुई गणना के अनुसार सफाई और मल ढोने के काम में लगभग 800000 (आठ लाख) लोग लगे हुए हैं। इनमें से सफाई कर्मचारियों की संख्या 3.87 लाख थी, जो एक अनुमान के अनुसार 1981 में स्थूल रूप से 6.18 लाख हो जाएगी।
() यह बात ध्यान देने योग्य है कि देश में सफाई कर्मचारियों की संख्या के कोई विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
(6) राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की विभिन्न वार्षिक रिपोर्टों के अनुसार:-
() दूसरी रिपोर्ट (1995-96) के अनुसार वर्ष 1989 में देश में सफाई कर्मचारियों की 'अनुमानित' संख्या 4,21,635 थी जिनमें 2,62,243 पुरुष तथा 1,59,392 महिलाएं थीं। यहां यह ध्यान रखने योग्य बात है कि ये आंकड़े अपूर्ण ही हैं क्योंकि कई राज्यों और संघ शासित क्षेत्रों ने कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं कराए थे। इसलिए सफाई कर्मचारियों की वास्तविक संख्या इससे अत्यधिक है।
() वर्ष 2015-16 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में 1,80,657 'परिवार (Households)' मानव मल ढोने के काम में लगे हैं।
(7) जनविकास, अहमदाबाद संस्था द्वारा वर्ष 2011-12 में किये गए अध्ययन के अनुसार:-
() देश में लगभग 40 लाख लोग सफाई तथा मानव मल ढोने के काम में लगे हुए हैं।
() लगभग 600 लोग प्रतिवर्ष सीवर की सफाई करते हुए मरते हैं।
(8) टाइम्स ऑफ इंडिया नामक समाचार पत्र में 16 जुलाई 2017 को प्रकाशित समाचार में सामाजिक कार्यकर्ता श्री वेजवाड़ा विल्सन नें कहा कि देश में विभिन्न स्थानों पर पिछले 100 दिनों में सीवर साफ करते हुए 39 व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी।
(9) हिन्दू नामक अंग्रेजी समाचार पत्र में दिनांक 4 अप्रैल 2014 को श्री एस0 आनन्द द्वारा लिखे गए 'डेथ इन ड्रेन्स (Death in the Drains)' नामक लेख के अनुसार:-
() एक 2007 के एक अध्ययन द्वारा यह तथ्य ज्ञात हुआ कि पूरे देश में प्रतिवर्ष कम से कम 22,327 (बाईस हजार तीन सौ सत्ताईस) सफाई कर्मियों की विभिन्न सफाई कार्यों को करते हुए मृत्यु होती है। जो औसतन लगभग 62 व्यक्ति प्रतिदिन हुआ।
() राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष श्री संतोष चौधरी ने 2007 में बताया कि देश भर में औसतन 2 से 3 व्यक्ति प्रतिदिन सीवर की सफाई करते हुए मरते हैं। जो कि 730 से 1095 व्यक्ति प्रतिवर्ष हुए!
उपरोक्त कुछ तथ्यों और आंकड़ों से वास्तविकता की केवल एक झलक भर ही प्रदर्शित होती है। क्योंकि इन सीमित सर्वेक्षणों और सूचनाओं से देश भर में गन्दगी, कूड़ा-करकट और मानव मल में जीवन नष्ट करने को विवश करोड़ों व्यक्तियों की स्थिति का सम्पूर्ण दृश्य सामने नहीं पाता। लेकिन फिर भी इन सीमित सूचनाओं से उस नारकीय जीवन और उस 'जनसंहार' का अनुमान लगाया जा सकता है जो हजारों वर्षों से करोड़ों लोगों की नियति बना हुआ है।
यह तो सर्वविदित है कि मनुवाद जनित वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था में मनुवादियों ने राज्य शक्ति, धर्म आदि साधनों और उपायों द्वारा शोषित जातियों को शारीरिक और मानसिक दास बना लिया और सभी निकृष्ट तथा गन्दे कामों को बलपूर्वक शोषित जातियों के सिर मढ़ दिया। वास्तव में सर्वप्रथम ब्राह्मणों ने समाज को वर्ण व्यवस्था के अनुसार बांटा तत्पश्चात वर्ण व्यवस्था से जाति व्यवस्था का सृजन हुआ। इस प्रकार ब्राह्मणों ने समाज को विखंडित किया। तथाकथित हिन्दू धर्म और राज्य सत्ता का उपयोग करके ब्राह्मणों ने समाज की सारी संपत्ति और उत्पादन साधनों पर मनुवादियों का अधिकार स्थापित कर दिया तथा समाज में अपने लिए लाभदायक स्थिति को प्राप्त कर लिया। लेकिन क्योंकि ब्राह्मण शोषित जातियों के शोषण पर ही निर्भर रहे इसलिये उन्होंने इन शोषित जातियों को समाज में निम्न स्तर पर बनाये रखने और अपनी प्रमुखता को स्थायी रखने के लिए भी तथाकथित हिन्दू धर्म और राज्य सत्ता का आश्रय लिया। इस कार्य में सहयोग के लिये ब्राह्मणों ने 'श्रेणीगत असमानता (Graded Inequality)' के सिद्धांत को जन्म दिया। जिसका अर्थ है कि वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था में सर्वोच्च स्तर पर ब्राह्मण होगा तथा अन्य वर्ण और जातियाँ भले ही ब्राह्मणों से निम्न स्तर पर होंगी लेकिन वे समान स्तर पर नहीं होंगी बल्कि उनमें भी श्रेणीक्रम होगा। इस प्रकार जाति व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान पर ब्राह्मण जातियाँ और निम्नतम स्थान पर अनुसूचित जातियाँ (जिन्हें अस्पृश्य जातियाँ भी कहा जाता है) होती हैं। अन्य जातियाँ इन दोनों सीमाओं के मध्य में आती हैं। इस प्रकार जाति व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य जातियाँ उनसे निम्न स्तर पर हैं किंतु वे निम्नता के समान स्तर पर नहीं हैं। इसी कारण जाति व्यवस्था से सभी जातियाँ समान रूप से पीड़ित भी नहीं हैं। इसी श्रेणीगत असमानता के अनुसार आर्थिक संसाधनों का भी असमान वितरण किया गया। अनुसूचित जातियों को शिक्षा और शिक्षा प्राप्त करने और सम्पति के अधिकार से वंचित तो किया ही गया इसके साथ ही साथ उनको मानवीय स्तर से भी नीचे गिराया गया। उनको मानसिक दास बना दिया गया जिससे उनकी शारीरिक दासता स्थाई हो जाए। इस कार्य में ब्राह्मणों ने अन्य जातियों से भी सहयोग लिया और इसके बदले में उन जातियों को कुछ सामजिक, धार्मिक और आर्थिक लाभ मिला। ब्राह्मणों द्वारा अपनी इस सर्वोच्च स्थिति को बनाये रखने हेतु प्रत्येक उपाय, प्रत्येक साधन, प्रत्येक छल-प्रपंच और धोखाधड़ी को अपनाया गया। ब्राह्मणों ने सदैव अपने स्वार्थों को समाज, राज्य और देश हित से ऊपर रखा। भारतीय इतिहास इन प्रपंचों के उदाहरणों से भरा हुआ है। राज्य या देश भले नष्ट हो जाए लेकिन इनकी सर्वोच्चता पर आंच नहीं आनी चाहिये। इसी कारण से भारत हजारों वर्ष दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहा।
इस प्रकार मानव मल ढोना, गन्दगी और कूड़े-करकट की सफाई करना आदि गन्दे कार्य शोषित जातियां स्वेच्छा से नहीं बल्कि हजारों वर्षों की मनुवादी दासता से उपजी निर्धनता, विकल्पहीनता और मनुवादियों की शक्ति द्वारा विवश होने और अपने शोषण का उन्मूलन करने का मार्ग ज्ञात नहीं होने के कारण करती हैं।
ऊपर दिए गए तथ्यों में बिन्दु (9) के () और () में उल्लेख किया गया है कि प्रतिवर्ष 22,327 व्यक्ति गन्दगी और मानव मल की सफाई के कार्यों को करते हुए मरते हैं यानि औसतन 62 व्यक्ति प्रतिदिन! अब इससे यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि पिछले हजारों वर्षों से मानव मल और गन्दगी में जीवन व्यतीत करने को विवश करोड़ों व्यक्तियों की अकाल मृत्यु हो चुकी है! इसको 'भीषण जनसंहार' ही कहा जाना उचित है। एक अनुमान के अनुसार द्वितीय विश्व युध्द में हिटलर ने लगभग एक करोड़ व्यक्तियों की हत्या करवाई थी। जबकि जापान पर संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा गिराए गए दो परमाणु बमों द्वारा लगभग तीन लाख बीस हजार व्यक्ति मारे गए। इसकी तुलना में मनुवाद जनित जाति व्यवस्था के कारण मानव मल, गन्दगी और कूड़े-करकट की सफाई करने को विवश कर दिए गए शोषित जातियों के सैकड़ों करोड़ लोग पिछले हजारों वर्षों से सतत रूप से चल रहे इस 'मनुवादी जनसंहार' में मारे जा चुके हैं और शोषित जातियों के लोगों का यह 'मनुवादी जनसंहार' आज भी चल रहा है। आज भी मनुवादी वर्ग यही चाहता है और इसके लिये प्रत्येक उपाय और साधन अपनाता रहता है कि शोषित जातियां मानव मल उठाने आदि गन्दे कार्यों को करते रहें और यह 'मनुवादी जनसंहार' सतत रूप से चलता रहे।
मनुवादियों के इस षड़यंत्र को प्रकट करते हुए श्री भगवान दास ने लिखा है कि:-
"हिन्दू नेता तथा समाज-सुधारक इस बात से डरते थे कि यदि मैंने (अर्थात भंगी) ने पखाने साफ करने तथा गन्दगी उठाने का काम छोड़ दिया तो कौन इतनी कम उजरत (पारिश्रमिक, मजदूरी) पर यह गन्दा तथा नीच काम करने के लिये तैयार होगा। जाति व्यवस्था का यह बहुत बड़ा फायदा (मनुवादियों के लिये) था कि गन्दे तथा घृणित कामों का ऐसा प्रबन्ध कर दिया गया था कि जिन कामों को करने के लिये कोई आसानी से राजी नहीं होता उसके लिये भी एक जाति पैदा कर दी गई। इसलिये गन्दगी तथा नीचता और अपमान के नर्क में फंसाये रखने के लिये इस युग के सबसे महान हिन्दू नेता- जो महात्मा गांधी के नाम से प्रसिद्ध हुए, छोटे से छोटे राजनीतिक नेता तथा महात्मा, महंत और साधु इस बात का प्रचार करते चले रहे हैं कि भंगी का काम पुरुषार्थ का काम है, जो मुझे (अर्थात भंगी) करते रहना चाहिए। गांधी जी ने तो यह भी बार-बार कहा था 'भंगी माँ के समान निस्वार्थ सेवा करता है। यह नीचा पेश नहीं और हमें (अर्थात भंगी) सेवा समझकर करते रहना चाहिए।' उन्होंने जोश में आकर यह भी कहा कि 'अगर मेरा दूसरा जन्म हो तो मैं भंगी के घर में पैदा होना पसन्द करूँगा।' मुझे (अर्थात भंगी को) ये बातें बचकाना सी लगती थीं, क्योंकि इनका सच्चाई से कोई सम्बन्ध नहीं था। परन्तु मेरे बहुत भोले-भाले भाई इस बहकावे में गए। मेरे नेता बाबा साहेब अम्बेडकर ने उन लोगों को लताड़ते हुए कहा 'यदि यह पुरुषार्थ का काम है तो तुम कर लो, हम छोड़ रहे हैं, तुम इसे अपना लो। पैसा भी कमाओ और पुरुषार्थ भी।' परन्तु मेरे भाईयों ने इस महापुरुष की बात मानकर महात्माओं की ही नसीहत को अपनाया और नतीजे के तौर पर आज भी भंगियों की अधिक संख्या गांधी जी के आदेश पर चलते हुए गन्दगी, गरीबी तथा अपमान के अथाह समुद्र में गोते खाकर पुरुषार्थ कमा रही है। एक बात जो मेरे भाई आज तक नहीं समझ सके वह यह है कि हमारे नेता (बाबा साहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर) का हित हमारा भविष्य, हमारी उन्नति तथा प्रगति थी। परन्तु महात्मा (गांधी) के सामने उन लोगों का हित था जो मेरे विरोधी रहे हैं तथा इतिहास में हर अवसर पर मेरी उन्नति और प्रगति में बाधा डालते आये हैं (अर्थात मनुवादी वर्ग) परन्तु सदियों के शोषण ने मुझे कमजोर तथा कायर ही नहीं बना दिया, मूर्ख भी बना दिया।"1
(क्रमशः)

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